SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ सितम्बर १९७८ । अपनी पूज्या माताजी के साथ नैनागिरि पहुँचा। बस में बैठा हर आदमी आचार्यश्री के अस्वस्थ होने पर मौन, अवाक, हतप्रभ, और चिन्तित था। मैं भी। मेरी एक चिन्ता और थी। मेरी नज़र में आचार्य विद्यासागरजी युवापीढ़ी में समग्र जीवन-क्रान्ति के लिए संकल्पित उन मनीषियों में से हैं, जो करुणा के शासन में जन्मते हैं, अन्यथा ऐसी विभतियाँ मक्ति के कगार पर ही होती हैं। मैं तो इस विश्वास को संजोये हए हैं कि आज की तरुण पीढी परती जमीन के चित्त में गहरे कहीं सुषुप्त पड़ी उर्वरा को जगाने में आचार्य गरजी की एक अपर्व भमिका होगी और इस देश में पनः उदात्त सांस्कृतिक दार्शनिक और आध्यात्मिक मल्यों की एक हरी-भरी फसल लहलहायेगी। ..."तो मैं चिन्तित था कि कहीं यह जमीन परपी न रह जाए और फिर सैकड़ों साल की एक बदकिस्मत खाई आड़े आ जाए। इसलिए, महज इसलिए, मैं भी आचार्यश्री की अस्वस्थता को लेकर अन्य साथी मुसाफिरों की तरह अन्यमनस्क और बेभान था। नैनागिरि पहुँचा। धूप तेज थी, लेकिन प्रभाव डालने में लगभग असमर्थ । भीतर गहरे आचार्यश्री के पुण्य-दर्शन की उत्कष्ठा ने धूप की तीक्ष्ण तपन को विस्मृत कर दिया था। सुना कि वे बोल नहीं रहे हैं। दर्शन अवश्य होंगे। यह भी सुना कि १-२ दिन पूर्व वे काफी अस्वस्थ थे, अब स्वास्थ्य-लाभ कर रहे हैं। यह भी जाना कि जिस रात उन्हें १०६ डिग्री की सीमा लाँघता ज्वर था, उस रात हजारोंहजार भाई रेशन्दीगिरि के मन्दिर में पलकों पर प्राण लिये, पाषाण-खण्डों पर चिन्तातुर बैठे रहे थे। वैद्य-हकीमों के प्रयत्न-पुरुषार्थ से नयी पीढ़ी के इस हिमालय को मौत के मुंह से बाहर लाया जा सके, इस मंगल कामना के साथ उस रात हजारों-हजार लोग उपस्थित थे, यह जानते हुए भी कि काल अपरिहार्य है, उससे बचना-बचाना किसी के हाथ नहीं है। कैसी भयावह निशा थी वह ! लेकिन तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की समवसरण-स्थली नैनागिरि का पावन क्षेत्र और दूसरे दिन की वह भाग्यशालिनी सुबह-हजारों कण्ठों से यहीं सुना कि कहीं ध्रुवतारा डूबता है?" मैं जिस दिन पहुँचा, उनका स्वास्थ्य उत्तरोत्तर संभल रहा था। चलने में अशक्य थे। आहार लेने लगे थे; लेकिन शायद मानेंगे नहीं आप कि इतनी गहन रुग्णता के बाद भी उनके हाथ-पैरों में कहीं-कोई प्रमाद नहीं था, और मुख-मण्डल की आभा कहीं हारी नहीं थी। कैसा सुखद वातावरण था उस महाभाग रेशन्दीगिरि का !! उसके वृक्ष, वृक्षों की हरी-भरी शाखाएँ, उनके नये-नये पात; रास्ते, उनके दोनों किनारे, उन पर रेत; तालाब, उस पर कमल ; खेत, हरे-भरे; पवन, मन्दमन्द, शीतल, सुवासित--यह सब आचार्यश्री के मंगल विहार से वंद्य और सुखद लग रहा था। मुझे एक विस्मय हुआ। उन दिनों आचार्यश्री के प्रवचन बन्द थे; लेकिन लगता था जैसे सारा वातावरण अनुगुंजित है, उनके उपदेशों से, उनकी देशना से। अबोला-सा कहीं कुछ लगा नहीं। विगत की बातों को दुहराते लोगों की भीड़ में यथापूर्व जीवन्त उल्लास दीख पड़ रहा था। और फिर उनका संघ; संसार की व्यर्थता और निस्सारता को पहचानने वाले तीन-चार युवाओं का समुदाय, जिनमें से दो उनके सहोदर हैं। वय होगी यही कोई १९ से २३ के बीच। कोई शिलाखण्ड पर ध्यानारूढ़ है, किसो का सर किसी ग्रन्थ पर झुका हुआ है, कोई सामायिक में ( शेष पृष्ठ २८ पर ) २६ Jain Education International आ. वि. सा. अंक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy