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विश्वविद्यालय में डा. टी. जी. कालघाटगी; जबलपुर विश्वविद्यालय में डॉ. विमलप्रकाश जैन; जैन विश्व भारती, लाडन में डॉ. फलचन्द्र जैन प्रेमी एवं डॉ. कमलेशकुमार जैन; हाम्बर्ग वि. वि. जर्मनी में डॉ. राजेन्द्र जैन; विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन; तथा नागपुर वि. वि. में डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर । समाज-सेवा के क्षेत्र में
साहित्य-सेवा प्रकारान्तर से समाज-सेवा ही है, किन्तु प्रस्तुत प्रकरण की समाजसेवा के अन्तर्गत विधवा-विवाह, दस्सा-पूजा, शूद्र मन्दिर-प्रवेश, मृतक-भोज, वृद्ध-विवाह, बाल-विवाह, अन्तर्जातीय विजातीय या सगोत्र विवाह जैसे विषय आते हैं। इन सामाजिक रूढ़ियों एवं कुरीतियों के विरोध में कई जैन विद्वानों ने अथक कार्य किये, यद्यपि उन्हें सफलता बहुत ही कम मिली। ऐसे सुधारवादी विद्वानों में पं. अर्जुनलाल सेठी, ब्रह्म. शीतलप्रसाद, पं. नाथूरामजी प्रेमी, डा. हीरालालजी जैन, पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री, पं. परमेष्ठीदासजी न्यायचीर्थ, डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी आदि प्रमुख है। इन विद्वानों ने शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर उक्त कुरीतियों के विरोध में लघु एवं दीर्घ निवन्ध एवं ग्रन्थ भी प्रकाशित किये हैं।
__ जैन पण्डितों की सामाजिक सेवाओं के प्रसंग में हम उन विद्वानों को नहीं भूल सकते; जिन्होंने जिनवाणी के उद्धार, सम्पादन, अनुवाद, समीक्षा के साथ-साथ जैन-ग्रन्थों को शुद्ध विधि से प्रकाशित करने हेतु प्रेस की विशेष व्यवस्थाएँ भी की। इस क्रम में प्रातःस्मरणीय श्रद्धेय पं. पन्नालालजी बाकलीवाल, पं. श्रीलालजी, पं. गजाधरलालजी के नाम विशेषरूपेण उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी सभा की ओर से क्रमश: कलकत्ता एवं वाराणसी में प्रेस की स्थापना की। पं. अजितकुमारजी शास्त्री ने मुलतान (पाकिस्तान) में अकलंक प्रेस , डा. कामताप्रसादजी ने अलीगंज में महावीर प्रेस, श्री दुलीचन्द्र पन्नालाल परवार ने कलकत्ते में जिनवाणी प्रेस, मूलचन्द्र किसनदास कापड़िया ने मुरत में जैन विजय प्रेस, श्री पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने शोलापुर में कल्याण पॉवर प्रेस की स्थापना कर जैन साहित्य के प्रकाशन को तीव्रगति प्रदान की। ये विद्वान् प्रेस-संस्थापक, लेखक, सम्पादक, टीकाकार एवं अनुवादक होने के साथ-साथ कम्पोजीटर, व्यवस्थापक, प्रकाशक एवं मुद्रक भी थे। इन विद्वानों की कार्य करने की तथा जिनवाणी-सेवा के प्रति समर्पित वृत्ति की प्रशंसा के लिए आज हमारे पास शब्द नहीं हैं; केवल मूक श्रद्धांजलियाँ ही हैं।
हम उन ग्रन्थमालाओं के प्रति भी नतमस्तक हैं, जिन्होंने देश के विद्वानों से सम्पर्क स्थापित कर उन्हें हस्तलिखित ग्रन्थों के अध्ययन एवं सम्पादन की शिक्षा एवं प्रेरणा दी। इस दिशा में हम श्रद्धेय नाथूराम जी प्रेमी के उपकारों को कभी नहीं भूल सकते, जिन्होंने पं. पन्नालाल सोनी , पं. दरबारीलाल, डा. हीरालाल जैन, डॉ. जगदीशचन्द्र, डा. उपाध्ये जैसे विद्वानों की एक सुन्दर टीम तैयार की और उनसे अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रन्थों का सम्पादन कराकर उनके प्रकाशन के लिए माणिकचन्द्र दि. जैन
तीर्थकर : अप्रैल ७९/३८
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