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________________ दिल्ली के श्री बाबू पन्नालालजी अग्रवाल (दिल्ली, वि. सं. १९६०) ने दिल्ली के जैन ग्रन्थागारों में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थों की बड़े ही परिश्रम के साथ सूचियाँ तैयार की तथा उनका ‘अनेकान्त' में क्रमशः प्रकाशन कराया। आज भी आपका जीवन इस कोटि के साहित्य के उद्धार के लिए समर्पित है। हस्तलिखित ग्रन्थों पर कार्य करने वाले अन्वेषक विद्वान् उनकी सहायता के बिना शायद ही अपना कार्य सम्पूर्ण कर पाने में समर्थ हों। ____डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इस दिशा में होने वाले अभी तक के कार्यों में सर्वाधिक कार्य किया है। उन्होंने राजस्थान के कई शास्त्र-भण्डारों में सुरक्षित हस्तलिखित ग्रन्थों की वर्गीकृत सूचियाँ ५ खण्डों में तैयार की हैं। उनका विवरण देखकर डा. कासलीवाल के घोर परिश्रम की सराहना अनिवार्य हो जाती है। उन्होंने अभी तक लगभग १६-१७ हजार ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत किया है। यदि अकेले राजस्थान के शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध हस्तप्रतियों की सूचियाँ तैयार हों तो अभी लगभग ३० खण्ड और तैयार हो जाएँगे । यही स्थिति भारत के कोने-कोने में बिखरे हुए ग्रन्थों की है । यदि ये सूचियाँ तैयार कर प्रकाशित करायी जा सकें तो वह साहित्य की सर्वश्रेष्ठ ठोस सेवा होगी। जैन विज्ञान एवं गणित के क्षेत्र में दि. जैन विद्वानों ने विज्ञान के क्षेत्र में भी उत्साहवर्धक शोध-कार्य किये हैं। जैन साहित्य वस्तुतः आचार, सिद्धान्त या धर्म-दर्शन मात्र का साहित्य नहीं है । उसमें विविध ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य सामग्री भी उपलब्ध है। प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन ( सागर, १९२६ ई. ) ने पिछले लगभग २० वर्षों से तिलोयपण्णति, षट्खण्डागम, गोम्मटसार, त्रिलोकसार एवं महावीराचार्य कृत गणितसार-संग्रह में वर्णित जैन गणित का आधुनिक गणितशास्त्र के सिद्धान्तों के साथ तुलनात्मक अध्ययन कर जैन गणित की कुछ मौलिकताओं की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। उस दिशा में प्रो. जैन के लगभग ५० महत्त्वपूर्ण शोध-निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। जैन गणित के अतिरिक्त जैन-भौतिकी, जैन रसायन-शास्त्र, जैन प्राणिशास्त्र, जैन वनस्पति-शास्त्र जैसे गम्भीर विषयों पर भी कार्य हो रहे हैं। इस दिशा में प्रो. घासीराम जैन, डॉ. दुलीचन्द्र जैन, डॉ. नन्दलाल जैन एवं श्री सुलतानसिंह (रुड़की) के नाम बड़े आदर के साथ लिये जा सकते हैं। इनके प्रकाशित शोध-निबन्धों को पढ़कर ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि यदि इन जैन वैज्ञानिकों को प्रयोग हेतु समुचित सुविधाएँ प्राप्त हों, तो ये लोग जैन साहित्य में उपलब्ध वैज्ञानिक सामग्री पर आश्चर्यजनक शोधकार्य प्रस्तुत कर सकते हैं। चिकित्सा-सम्बन्धी जैन साहित्य के क्षेत्र में जैनाचार्यों ने धार्मिक एवं आध्यात्मिक साहित्य के अतिरिक्त लौकिक साहित्य पर भी अपनी लेखनी चलायी है। उग्रादित्य, पूज्यपाद एवं अकलंक प्रभृति आचार्यों ने तीर्थकर : अप्रैल ७९/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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