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________________ इसी प्रकार 'कुन्दकुन्द के कुन्दन' के निम्न छन्द की छटा दुरूह सिद्धान्तों को किस सरसता एवं सहजता से प्रस्तुत किया जा सकता है, इसका परिचय कराने में समर्थ है - मोहादिका उदय पाकर जीवरागी होता स्वयं नहि कभी कहते विरागी । धूली बिना जल कलंकित क्या बनेगा ? क्या अग्नि योग बिन नीर कभी जलेगा ? इसी प्रकार 'भावनाशतकम्' के अन्त में द्रुतविलम्बित छन्द में निबद्ध, गीर्वाणवाणी में प्रस्तुत 'शारदा - स्तुति' कोमलकान्त पदावली के माध्यम से रसान्विति के नये क्षितिज का दर्शन कराती है असि सदा हि विषक्षय कारिणी, भुवि कुदृष्ट्येऽतिविरागिनी । कुरु कृपां करुणे कर वल्लकि, मयि विभोः पदपंकज षट्पदे ॥ 'जैन गीता' की 'मनोभावना' तथा 'कुन्दकुन्द के कुन्दन' की 'अन्तर्घटना' देखकर लगता है आप मात्र 'पद्य कवि' ही नहीं उच्चकोटि के 'गद्य कवि' भी हैं । जन्मना, कन्नड़ भाषी होते हुए भी हिन्दी पर इतना अधिकार ! आपके सशक्त गद्य का अवलोकन कर, यह अपेक्षा है कि गद्य के क्षेत्र में भी आपसे कुछ नवीन मौलिक साहित्य का सृजन होगा । आप जब प्रकृति प्रदत्त स्वर - लहरी में उपर्युक्त किसी भी छन्द का गायन करते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि संगीत ही स्वयं मूर्तिमान होकर मुखरित हो उठा हो । तपस्वी, संगीतज्ञ कवि के मुख से काव्य पाठ का श्रवण कितना आनन्ददायी होता है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव ही किया जा सकता है, शब्दों में उसका प्रकटीकरण असम्भव है। परम पूज्य 'तपस्वी कवि से समाज को अनेक आशाएँ हैं । जिस प्रकार 'सहस्रांशु' अपनी सहस्र - सहस्र किरणों से लक्षातिलक्ष कणों को आलोक से परिप्लावित कर देता है उसी प्रकार अचार्यप्रवर का 'काव्य-सूर्य' कोटि-कोटि सहृदयों को रससिक्त कर स्वानुभव का पान करा, मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ करेगा, यह विश्वास है । "अपने अज्ञान का आभास होना ही ज्ञान की ओर एक बड़ा कदम हैं ।" - डिजराइली २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only आ.वि.सा. अंक www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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