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________________ पै आपका स्तवन शाश्वत मोक्ष-दाता ऐसा वसन्त तिलका यह छन्द गाता॥ _ --निरञ्जनशतक (हिन्दी) विविध अलंकारों का मञ्जुल प्रयोग काव्य-माधुरी के वर्द्धन में पूर्णतः सफलसुफल है । 'श्रमण-शतकम्' (संस्कृत) के आर्याछन्द में निबद्ध निम्न श्लोक में यमक की मनोहारी छटा दर्शनीय है भव हेतु भूता क्षमा, व्यक्ता जिनेन या स्वीकृता क्षमा। तां विस्मर नृदक्ष ! मायत: सैव शिवदाने क्षमा ।। ऐसा लगता है कि 'उपमा कालिदासस्य' के समान 'यमक विद्यासागरस्य' का आभाणक (कहावत) प्रसिद्धि को प्राप्त होगा । निम्न श्लोक में 'अपह नुति' की विशिष्ट मनोहारी छवि है असित कोटिमिता अमिताः तके, नहि कचा, अलिमा स्तव तात! के। वरतपोऽनलतो बहिरागता सघन धूम्रमिषेण हि रागता ॥ --निरंजनशतकम् (संस्कृत) मुक्तक काव्य के रूप में आपकी अन्य हिन्दी-रचनाएँ हैं--समाधिशतक, योगसार, कल्याण मन्दिर-स्तोत्र, तथा एकीभाव स्तोत्र (मन्दाक्रान्ताछन्द)। प्रबन्ध काव्य के रूप में 'जैन गीता' (समणसुत्तं का भावानुवाद) और 'कुन्दकुन्द का कुन्दन' (समयसार का भावानुवाद)। वैसे तो ये दोनों काव्य अनुवाद-ग्रन्थ की कोटि में आते हैं; लेकिन आचार्यश्री की मौलिक प्रतिभा के समावेश से दोनों ही मौलिक सुषमा से अनुप्राणित हैं। सर्वत्र मौलिक उपमाओं, नित-नवीन कल्पनाओं, अधुनातन दृष्टान्तों से परिपूर्ण हैं ये दोनों ‘प्रबन्ध-काव्य'। अनुवाद को भी इतना सरस बनाया जा सकता है, इसका उदाहरण ये दोनों हैं । देखिये, 'जैन गीता' में णमोकारमन्त्र' का भावानुवाद हे शान्त सन्त अरहन्त अनन्त ज्ञाता, हे शुद्ध बुद्ध शिव सिद्ध अबद्ध धाता। आचार्य वर्य उवझाय सुसाधु सिन्धु, मैं बार बार तुम पाद पयोज बन्दूँ ॥ निश्चित ही उपर्युक्त उद्धरणमात्र अनुवाद न होकर, रस-सिद्ध कवि की मौलिक प्रतिभा का पारस-स्पर्श पा एक नयी आभा का सृजन कर रहा है। तीर्थकर : नव-दिस. ७८ २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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