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वित काव्य, हृदय के अतल तल का स्पर्श कराता हुआ हद्तन्त्री के समग्र तन्तुओं को एक साथ झंकृत कर अलौकिक आनन्द की वर्षा कराता है । शान्त रस की छटा दिखाने वाला यह उदाहरण
चारित्र के मकुट से शिर ना सजोगे, आरूढ़ संयममयी रथ पै न होगे। स्वाध्याय में रत रहो तुम तो भले ही, ना मुक्ति-मंजिल मिले दुःख ना टले ही ॥"
--जैन गीता लगता है आचार्यश्री को 'शतक-काव्य' की परम्परा विशिष्ट रूप से प्रिय है। ‘शतक-काव्य' की गणना संस्कृत-साहित्य में मुक्तक काव्य के अन्तर्गत की जाती है। मुक्तक का अर्थ है वह काव्य, जो बिना किसी बाह्य उपकरणों (सन्दर्भादि) के सद्य: रस-प्रतीति में समर्थ हो। मुक्तक काव्य के विषय में आनन्दवर्धन की निम्न उक्ति महत्त्वपूर्ण है
“मुक्तकेषु प्रबन्धेषु इव रसबन्धाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते।' ___ इस प्रकार 'शतक-काव्य' में एक अनुपम माधुरी होती है, जो सहृदयों को रस-विभोर कर देती है। आचार्यश्री की तपःपूत लेखनी से संस्कृत-शतकों की त्रिवेणी तथा हिन्दी-शतकों का चतुर्वर्ग प्रसूत हआ है। संस्कृत तथा हिन्दी के ये ‘सप्तदशक' सप्तसिन्धु की सप्तधारा के समान सम्पूर्ण भारतवर्ष के शुष्क जीवन को रस-सिञ्चित कर शान्ति की हरीतिमा में परिवर्तित कराने में सर्वथा समर्थ हैं । ये सप्तशतक हैं-- (१) श्रमण शतकम् (संस्कृत) : आर्याछन्द में निबद्ध यह शतक अनुपम माधुरी से युक्त है; (२) निरञ्जन शतकम् (संस्कृत) : द्रतविलम्बित छन्द में निबद्ध यह शतक, एक अलौकिक संसार का परिचय कराता-सा लगता है ; (३) भावनाशतकम् (संस्कृत) : अभी अप्रकाशित है, इसमें चित्रालंकार का विशिष्ट प्रयोग 'मुरज बन्ध' के माध्यम से किया गया है। हिन्दी-शतक-(१) श्रमण शतक; (२) निरञ्जन शतक; (३) भावना-शतक (शीघ्र प्रकाश्य); (४) निजानुभव शतक । इन चारों शतकों में 'वसन्ततिलका छन्द' प्रयुक्त हुआ है।
___ वसन्ततिलका आचार्यश्री का सर्वप्रिय छन्द है, क्योंकि 'जैन गीता' तथा 'कुन्दकुन्द का कुन्दन' भी इसी छन्द में निबद्ध हैं । जिस प्रकार कालिदास 'मन्दाक्रान्ता' में सिद्धहस्त हैं, उसी प्रकार आचार्यश्री 'वसन्ततिलका' में प्रवीण। उन्होंने अपने इस छन्द के बारे में एकाधिक बार कहा भी है
वे कामधेनु सुरपादप स्वर्ग में ही सीमा लिए दुख धुले सुख दे विदेही ।
२२ Jain Education International
आ वि.सा. अंक
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