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एक तपःपूत कवि की काव्य-साधना
A ऐसा लगता है कि उपमा कालिदासस्य के समान यमक विद्यासागरस्य का आभाणक प्रसिद्धि को प्राप्त होगा ।
- संस्कृत साहित्य में वीर, शृंगार एवं करुण रसों को ही प्रधानता रही है। लेकिन आचार्यश्री की तपःपूत लेखनी का स्पर्श पा कर शान्त रस अपनी संपूर्ण गरिमा से सर्वोपरि प्रतिष्ठित हो गया है।
- श्रीमती आशा मलैया जब तपःपूत लेखनी से काव्य प्रसूत होता है तब निःसन्देह ही वह साधना की आराधना का ही परिपाक होता है । वास्तविक काव्य-साधना तो उस कवि की ही हो सकती है, जिसका तन, मन, वचन सब कुछ आन्तर एवं बाह्य तप से परिपूत हो उठा हो। वास्तव में ऐसे तपस्वी कवि आज के भौतिकवादी युग में सुदुर्लभ ही हैं; लेकिन भाग्यवशात् हम लोगों के बीच एक ऐसे 'तरुण तपस्वी-कवि' का उदय हुआ है, जिसके काव्य को साधना कहा जा सकता है। ये तपस्वी कवि हैं परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी। यद्यपि मैं अज्ञ हूँ, तथापि अपनी अल्पमति के अनुसार आचार्यश्री की काव्य-गरिमा की एक सामान्य झाँकी प्रस्तुत कर रही हूँ। आचार्यश्री का काव्य मम्मट की निम्न उक्ति को पूर्णतः चरितार्थ कर रहा है
नियतिकृतनियमरहितां ह्लादैकमयामनन्यपरतन्त्राम् ।
नवरसरुचिरा निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति ॥ मम्मट ने काव्य को ‘कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे' माना है, लेकिन जब हम आचार्यश्री के काव्य का अवलोकन करते हैं तब प्रतीति होती है कि आचार्यप्रवर का काव्य ‘मातासम्मिततयोपदेशयुजे' है; क्योंकि ‘कान्तासम्मित उपदेश' में तो किञ्चित् स्वार्थ हो भी सकता है; लेकिन 'मातासम्मित उपदेश' तो हर परिस्थिति में कल्याणकारी ही होता है। आचार्यश्री के काव्य का प्रत्येक पद श्रेयोमार्ग की ओर उन्मुख करने वाला है, अत: वह 'माता सम्मित' ही हो सकता है।
संस्कृत साहित्य में वीर, शृंगार एवं करुण रस की ही प्रधानता रही है; लेकिन आचार्य श्री की तपःपूत लेखनी का स्पर्श पा शान्तरस अपनी गरिमा की महिमा से सर्वोपरि प्रतिष्टित हो गया है । आचार्य-प्रवर के काव्य का रसास्वादन कर ऐसी प्रतीति होती है कि 'शान्त एवं एकोरस:' । शान्तरस स्वभावत: माधुर्य
और प्रसाद की वृष्टि करता है। यदि इसका परिपाक किसी शान्त तपस्वी की लेखनी द्वारा हो तो उसके चमत्कार का क्या कहना ! आचार्यश्री का शान्तरस से आप्ला
तीर्थंकर : नव-दिस . ७८
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