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साधना का दृढ़ व्रत ले रखा है । हस्तलिखित ग्रन्थों की दुर्दशा देख-सुनकर वे मर्माहत हुई हैं तथा हस्तलिखित ग्रन्थों पर ही शोध-कार्य करने का निश्चय किया है। वर्तमान में वे १३ वीं सदी के अपभ्रंश कवि सिंहकृत 'पज्जुण्णचरिउ' के सम्पादनादि कार्यों में व्यस्त हैं। हिन्दी जैन साहित्य के क्षेत्र में
जैन कवियों द्वारा लिखित हिन्दी-साहित्य भी कम महत्त्व का नहीं। पुराण इतिहास, धर्म, दर्शन, सिद्धान्त, आचार, अध्यात्म की दृष्टि से तो वह महत्त्वपूर्ण है ही; रस, छन्द, अलंकार एवं भाषा की दृष्टि से उसके वैशिष्ट्य को हिन्दी-जगत् ने भी स्वीकार किया है। यही कारण है कि विविधता, मौलिकता एवं गुणवत्ता के कारण जैनेतर शोधकर्ताओं का ध्यान इस साहित्य ने आकर्षित किया है। इस क्षेत्र में दि. जैन विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं।
पं. नाथूरामजी प्रेमी ने महाकवि बनारसीदास कृत 'अर्द्धकथानक' का सर्वप्रथम सम्पादन एवं प्रकाशन कर हिन्दी में सर्वप्रथम लिखित आत्मकथा को हिन्दीजगत् के लिए प्रदान किया। उसके बाद उन्होंने "हिन्दी-जैन साहित्य का इतिहास' लिखकर तद्विषयक अनेक भ्रमों का निराकरण किया।
डॉ. कामताप्रसाद जैन ने 'कृपणजगावन चरित' जैसी सुन्दर एवं सरस रचना का सर्वप्रथम हिन्दी-अनुवाद के साथ प्रकाशन कर हिन्दी-जगत् को जैन कथा-साहित्य की गरिमा का परिचय दिया। बाद में उन्होंने अप्रकाशित एवं प्रकाशित अनेक हिन्दी जैन ग्रन्थों का अध्ययन कर 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' लिखा।
डॉ. हीरालाल जैन ने विविध कान्फ्रेंसों एवं साहित्य-सम्मेलनों में अपभ्रंशों को हिन्दी की जननी घोषित किया।
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने पूर्व प्रकाशित सामग्री का अध्ययन कर तथा वर्तमान हिन्दी-साहित्य की प्रवृत्तियों का मनन कर 'हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन' (दो खण्ड) नामक ग्रन्थ लिखा।
प्रो. श्रीचन्द्र जैन (अमरा, झांसी, १९११ ई.) ने जैन साहित्य के बारहमासा, पूजा-विधान एवं अन्य कथाओं का अध्ययन कर हिन्दी जैन साहित्य की प्रवृत्तियों पर अच्छा तुलनात्मक प्रकाश डाला है। जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन कर उन्होंने नवीन एवं मौलिक शोध-कार्य किया, जिसका मूल्यांकन कर विद्वत्परिषद् ने उन्हें १०००) की द्रव्य राशि से पुरस्कृत किया है।
डॉ. प्रेमसागर जैन (मैनपुरी १९२४ ई.) हमारी पीढ़ी के गम्भीर विचारक विद्वान् हैं। उनकी लेखनी एवं वाणी दोनों को ही सरस्वती का वरदान प्राप्त है। उनकी अनेक रचनाओं में से (१) जैन भक्तिकाव्य की भूमिका, (२) हिन्दी जैन भक्तिकाव्य, (३) जैन शोध-समीक्षा एवं (४) पार्श्वनाथ भक्तिगंगा प्रमुख हैं।
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/३३
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