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भविष्यदत्त एवं श्रीपाल जैसे नायकों के माध्यम से जैन कवियों ने मध्यकालीन भारत के विदेशों के साथ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों पर बड़ा ही सुन्दर प्रकाश डाला है। डॉ. जैन के अन्य ग्रन्थों में नरसेनकृत 'बड्ढमाण कहा' 'तुलनात्मक भाषाविज्ञान आदि हैं। वर्तमान में आप अपभ्रंश-कोश तैयार करने में संलग्न हैं। इसके तैयार होने से अपभ्रंश-जगत की दीर्घकाल से खटकनेवाली एक बड़ी भारी कमी दूर होगी।
डॉ. राजाराम जैन (मालथौंन, सागर, मध्यप्रदेश; १९२९ ई.) महाकवि रइधू एवं विबुध श्रीधर के समस्त उपलब्ध हस्तलिखित अप्रकाशित ग्रन्थों की खोज कर उनके सम्पादन, अनुवाद एवं समीक्षात्मक अध्ययन में व्यस्त हैं। सुनिश्चित योजना के अनुसार समस्त रइधू-साहित्य १६ खण्डों अर्थात् लगभग ९००० पृष्ठों में तथा विबुध श्रीधर-साहित्य तीन खण्डों अर्थात् लगभग १५०० पृष्ठों में प्रकाशित होगा। इनमें से अभी तक 'रइधू ग्रन्थावली' का एक खण्ड प्रकाशित हुआ है, दूसरा खण्ड आधा छप चुका है तथा अगले दो खण्ड प्रेस में जाने की तैयारी में हैं। विबुध श्रीधर कृत 'वड्ढमाणचरिउ' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होकर अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् द्वारा पुरस्कृत हुआ है तथा 'पासणाहचरिउ' की प्रेसकॉपी तैयार है। अन्य प्रकाश्यमान ग्रन्थों में महाकवि पदमकृत महावीररास, बूचराजकृत 'मयणजुज्झ कव्व', एवं विबुध श्रीधर कृत संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र की प्रेसकॉपी तैयार की जा रही हैं। अन्य प्रकाशित समीक्षात्मक ग्रन्थों में 'रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन' प्रमुख है जो बिहार सरकार के शिक्षा विभाग से प्रकाशित है तथा वीर निर्वाण भारती, मेरठ से २५०१) रुपयों की सम्मान-निधि से पुरस्कृत तथा स्वर्णपदक से सम्मानित है। इसके पूर्व इस ग्रन्थ पर शास्त्रि-परिषद् ने भी ११०१) रुपयों का पुरस्कार प्रदान किया था।
श्री प्रफुल्लकुमार मोदी (गाँगई, गाडरवारा, मध्यप्रदेश) डॉ. हीरालाल जैन के सुपुत्र हैं। सम्प्रति मध्यप्रदेश शासन के अन्तर्गत महाकोशल महाविद्यालय के प्राचार्य हैं । वृत्ति, स्मृति, प्रतिभा एवं स्वभाव में वे अपने पिता के सद्गुणों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं। आपने १० वीं सदी के अप्रकाशित पदमकीत्ति कृत अपभ्रंश 'पासणाहचरिउ' का अधुनातन पद्धति से सम्पादन किया है जो प्राकृत टैक्स्ट सोसाइटी, अहमदाबाद से प्रकाशित है।
डॉ. विमलप्रकाश जैन (मुजफ्फरनगर, १९३२ ई.) नवीन पीढ़ी के प्रगतिशील एवं प्रतिभासम्पन्न युवक विद्वान् हैं। अपभ्रंश-भापा एवं साहित्य में उनकी गहरी अभिरुचि है। उन्होंने महाकवि वीरकृत 'जंवसामिचरिउ' का सर्वप्रथम सम्पादन, अनुवाद कर उस पर विस्तृत गम्भीर प्रस्तावना लिखी है।
श्रीमती विद्यावती जैन (जबलपुर, १९३८ ई.) जिनवाणी की उन मूकसेविकाओं में हैं, जिन्होंने गृहस्थी के कठिन दायित्वों के साथ-साथ माँ सरस्वती की
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/३२
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