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डॉ. हीरालाल जैन ने करकंडचरिउ, णायकुमारचरिउ, सावयधम्मदोहा, पाहुडदोहा, सुगन्धदशमी कथा, मयणपराजयचरिउ, तथा वीरजिणिंदचरिउ का सर्वप्रथम एवं मुयोग्य सम्पादन एवं प्रामाणिक अनुवाद कर विस्तृत समीक्षात्मक प्रस्तावनाएँ तैयार की।
___डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने ‘परमात्म प्रकाश' का सम्पादन कर उसकी अंग्रेजी प्रस्तावना में अपभ्रंश-साहित्य की विविध प्रवृत्तियों पर मात्र सुन्दर प्रकाश ही नहीं डाला, अपितु यह स्पष्ट घोषित किया कि हिन्दी साहित्य के रहस्यवादी कवियों पर जैन रहस्यवाद का स्पष्ट प्रभाव है।
___पं. परमानन्दजी शास्त्री जैन साहित्य के उन मूक सेवकों में हैं, जिन्होंने निस्पृहवृत्ति से साहित्य-साधना में अपना तिल-तिल गला दिया है। वे एक चलतेफिरते विश्वकोश हैं, किस शास्त्र-भण्डार में कौन-कौन-से हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं तथा उनके विषय-क्रम क्या-क्या हैं, ये सब उन्हें कण्ठस्थ हैं। उन्होंने अनेक शोधनिबन्ध लिखे हैं, किन्तु उनके पाण्डित्य का परिचय तो उनके 'अपभ्रंश-ग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह' से ही मिल जाता है, जिसमें ऐतिहासिक महत्व की प्रशस्तियाँ संग्रहीत हैं तथा जिसकी विस्तृत समीक्षात्मक प्रस्तावना में उन्होंने उक्त प्रशस्तियों के आलोक में भारतीय इतिहास के अनेक प्रच्छन्न तथ्यों का उद्घाटन किया है।
डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन (बाँदरी, सागर; मध्यप्रदेश)-नवीन पीढ़ी के वरिष्ठ अन्वेषक विद्वान् हैं जिन्होंने 'अपभ्रंश-प्रकाश' नामक ग्रन्थ लिखा और उसके माध्यम से सर्वप्रथम 'अपभ्रंश-व्याकरण' तथा उसका भाषा-वैज्ञानिक विवेचन किया। डॉ. जैन ने अपभ्रंश के प्राचीनतम तथा सशक्त महाकवि स्वयम्भूकृत 'पउमचरिउ' जैसे दुरूह ग्रन्थ का सर्वप्रथम हिन्दी-अनुवाद प्रस्तुत कर अपनी असीम शक्ति, प्रतिभा एवं धैर्य का परिचय दिया है। 'अपभ्रंश-भाषा और साहित्य' नामक शोध-ग्रन्थ के माध्यम से आपने अपभ्रंश-भाषा का सांगोपांग भाषा-वैज्ञानिक विवेचन तथा उसके साहित्य का प्रवृत्तिमूलक एवं सांस्कृतिक इतिहारा प्रस्तुत किया है। आपके अन्य प्रकाशित ग्रन्थों में नरसेनकृत 'सिरिवाल चरिउ' है। अभिमानमेरु पुष्पदन्त कृत 'महापुराण' अपभ्रंशसाहित्य में लोहे के चने के रूप में विख्यात है। डॉ. जैन ने उसका भी सर्वप्रथम हिन्दी-अनुवाद कर प्रेस में दे दिया है। इसके प्रकाणन' से महाकवि पुष्पदन्त के भक्त-पाठक उनकी इस महनीय कृति का रसास्वादन शीघ्र ही कर सकेंगे।
डॉ. देवे द्रकुमार शास्त्री (चिरगांव, झाँसी. १९३३ ई.) ने 'अपभ्रंश-भाषा और शोध-प्रवृत्तियाँ' नामक ग्रन्थ लिखकर एतद्विषयक देश-विदेश में १७वीं-१८वीं सदी से अभी तक जो कार्य हुए हैं, उनका क्रमबद्ध प्रामाणिक समीक्षात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। उनका दूसरा ग्रन्थ 'भविमयत कहा' और 'अपभ्रंण कथा-काव्य' है। जिसमें उन्होंने अपभ्रंश कथा-काव्यों की मूल प्रवृतियों का विश्लेषण कर भविष्यदत्तकथाओं का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। जैन साहित्य में
तीर्थकर : अप्रैल ७९/३१
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