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'वह तुम्हारे चुनाव और पहल पर निर्भर करता है, सेनापति !' 'वैशाली का सेनापति निश्चय ही उसकी विजय चुनता है, उसका उत्थान चुनता है।'
'तो तुमने महावीर को नहीं चुना? शस्त्र और सैन्य की शक्ति को चुना। अन्तहीन संघर्ष और द्वन्द्व को चुना। जानता हूँ, महावीर के यहाँ से प्रस्थान करते ही, तुम्हारे परकोट और भी भयंकर शस्त्रों से पट जाएँगे। तुम्हारे द्वार और भी प्रचण्ड वज्र के शूलों और साँकलों से जड़ दिये जाएंगे।'
और एक चीखती आवाज़ ने प्रतिसाद किया :
'नहीं नहीं नहीं नहीं, ऐसा हम नहीं होने देंगे। या तो वैशाली में महावीर का शब्द राज्य करेगा, नहीं तो हम सर्वनाश का ताण्डव मचा देंगे। महावीर का धर्मचक्र यदि वैशाली का परिचालक न हआ, तो हे सर्वचराचर के नाथ, वैशाली के मस्तक पर सर्वनाश मँडला रहा है। त्राण करो, त्राण करो, त्राण करो हे परित्राता !'
महाचण्डी रोहिणी की इस आर्त पुकार में वैशाली की लक्ष-लक्ष आवाजें एकाकार हो गयी थीं।
____ और गन्धकुटी के रक्तकमलासन में ज्वाला उठती दिखायी पड़ीं। उस पर आसीन विश्व के प्रलय और उदय नाटक का नित्य-साक्षी महेश्वर महावीर गर्जना कर उठा :
'सत्यानाश सत्यानाश । सत्य-प्रकाश सत्य-प्रकाश । सत्यानाश सत्यानाश!'
कल्पान्तकाल के उस समुद्र-गर्जन में सारे जम्बूद्वीप के सत्ता-सिंहासन उलटपलट होते दिखायी पड़े।
अकस्मात् श्री भगवान का रक्तकमलासन शून्य दिखायी पड़ा। उन्हें किसी ने वहाँ से उठ कर सीढ़ियाँ उतरते नहीं देखा।
असंख्यजिह्व ज्वालाओं का एक सहस्रार समवसरण के तमाम मण्डलों में मॅडलाता दीखा।
और श्री भगवान का धर्मचक्र महाकाल के मेरुदण्ड को भेद कर, दिक्काल का अतिक्रमण कर गया।
00 (लेखक तथा श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ-प्रकाशन-समिति, इन्दौर के सौजन्य से )
“यह यहाँ प्रासंगिक और दृष्टव्य है कि हमारी सदी के आठवें दशक में इतिहास अब महज़ तिथि-ऋमिक घटनाओं का ब्यौरा नहीं रह गया है। मनोविज्ञान की तरह ही इतिहास में भी गहराई का आयाम प्रमुख हो गया है।"
-वीरेन्द्रकुमार जैन
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/२९
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