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________________ 'महावीर की वैशाली विजय और पराजय से ऊपर है। सो उसका पतन असम्भव है। लेकिन तुम्हारी वैशाली, तुम्हारे परकोटों में शस्त्र-बद्ध है। उस वैशाली का त्राण तुम्हारे हाथ है। उसकी विजय तुम्हारे हाथ है। उसका त्राण तुम्हारे सैन्यों और शस्त्रों पर निर्भर है। उसका उत्तरदायी महावीर नहीं।' 'वैशाली का निःशस्त्रीकरण चाहते हैं, महावीर ? इस शस्त्रों के जंगल में? इन भेड़िये राजुल्लों के डेरे में ? और अकेला सिंहभद्र तो वैशाली के भाग्य का निर्णायक नहीं, भगवन् ।' 'जगत का त्राता, और भाग्य-विधाता सदा अकेला ही होता है। वह पहल केवल एकमेव पुरुष ही कर सकता है। सम्भवामि युगे युगे का अवतार कृष्ण, अपने धर्मराज्य के महाप्रस्थान में कितना अकेला था। कुरुक्षेत्र की अठारह अक्षौहिणी सेनाओं के बीच भी वह कितना अकेला था। और आखेटकों के इस अरण्य में, एक दिन वह अकेला ही, एक आखेटक का तीर खा कर मर गया। उस क्षण अपने प्राणाधिक भाई तक को अपने से दूर कर दिया। अपनी महावेदना में उसने एकाकी ही मर जाना पसंद किया।' भगवान क्षणक चुप रह गये। फिर बोले : 'और देखो आयुष्यमान्, त्रिलोकी की इस चूड़ा पर, तीनों लोक के प्यार और ऐश्वर्य के बीच भी महावीर कितना अकेला है ! कि उसकी आवाज़ अकेली पड़ गयी है। वैशाली के भाग्य-विधाताओं ने उसका प्रतिसाद न दिया।' 'अपना प्रतिसाद तो अर्हत् महावीर आप ही हो सकते हैं। हमारी क्या सामर्थ्य कि उनके सत्य की तलवार का वार हम लौटा सकें। लेकिन यदि वैशाली की पराजय हुई, तो क्या वह महावीर की ही पराजय न होगी? यदि वैशाली का पतन हुआ, तो क्या वह महावीर का ही पतन न होगा ?' 'जानो महानायक सिंहभद्र, महावीर जय और पराजय एक साथ है। वह पतन और उत्थान एक साथ है। वह इष्ट और अनिष्ट एक साथ है। वह जीवन और मरण एक साथ है। वह नाश और निर्माण एक साथ है। सारे द्वंद्वों के बीच एकाग्र और द्वंद्वातीत खेल रहा है, महावीर।' 'इन द्वन्द्वों के दुश्चक्र में वैशाली का कोई तात्कालिक भविष्य ? कोई अटल नियति ?' 'केवल महावीर, और सब अविश्वसनीय है। जय-पराजय, उत्थान-पतन, प्रलय और उदय के इस नित्य गतिमान चक्र में, तुम कहीं उँगली रख सकते हो सेनापति?' 'रख सकता, तो सर्वज्ञ महावीर से क्यों पूछता वैशाली का भविष्य ?' तीर्थकर : अप्रैल /२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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