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________________ वर्षों व्यापी युद्ध मगध के साथ चलाना चाहता है, जिसे वैशाली के शासक चला रहे हैं ? मैं फिर पूछता हूँ वैशाली के यहाँ उपस्थित जनगण से- -- क्या वह युद्ध चाहता है ? - 'नहीं, नहीं, नहीं ! हम युद्ध नहीं चाहते । यह युद्ध राजाओं का है, प्रभुवर्गों का है, प्रजाओं का नहीं । प्रजाएँ कभी युद्ध नहीं चाह सकतीं।' यह युद्ध बन्द हो, बन्द हो, तत्काल बन्द हो ! ' श्री भगवान ऊर्जस्वल हो आये : 'जनगण के प्रचण्ड प्रतिवाद को सुना आपने, महाराज ? जिसमें प्रजा की इच्छा सर्वोपरि न हो, वह गणतंत्र कैसा ? वह तो अधिनायकतंत्र है। इसमें और अन्य साम्राजी तंत्रों में क्या अन्तर है ? यह गणतंत्र नहीं, निपट नग्न राजतंत्र है | इसे साक्षात् करें, राजन, इससे पलायन न करें । प्रत्यक्ष देखें, गणेश्वर, कि यहां शासक और शासित के बीच परस्पर उत्तरदायित्व नहीं है । जो राज, समाज और व्यवस्था जन-जन के प्रति उत्तरदायी नहीं, वह व्यवस्था प्रातांत्रिक नहीं, सत्तातांत्रिक है । वैशालीनाथ चेटक देखें, उनकी वैशाली कहाँ है ? कहाँ है उसका अस्तित्व ? यदि जनगण वैशाली नहीं, तो जिसे आप और आपके सामन्त राज हमारी वैशाली कहते हैं, वह निरी मरीचिका है। वह प्रजातंत्र नहीं, प्रजा का निपट प्रेत है । इस प्रेतराज्य की रक्षा आप कब तक कर सकेंगे, महाराज ? धोखे के पुतले को कब तक खड़ा रक्खेंगे ?' श्री भगवान चुप हो गये। कुछ देर गहन चुप्पी व्याप रही । उस अथाह मौन को भंग करते हुए चेटकराज जाने किस असम्प्रज्ञात समाधि में से वोले : 'मैं निर्गत हुआ, मैं उद्गत हुआ, भगवन् ! मैं सत्य को सम्यक् देख रहा हूँ, सम्यक् जान रहा हूँ, सो सम्यक् हो रहा हूँ । देख रहा हूँ प्रत्यक्ष, महावीर के बिना वैशाली का अस्तित्व नहीं । महावीर के शब्द पर से ही विदेहों की सच्ची वैशाली पुनरुत्थान कर सकती है। आज से वैशाली के गणनाथ महावीर हैं, मैं नहीं । मैं समर्पित हूँ भगवन्, मैं प्रभु के उत्संग में उबुद्ध हूँ, त्रिलोकीनाथ ! 1 और चेटकराज महावीर की चेतना में तदाकार हो कर समाधिस्थ हो गये । अष्टकुलीन राजन्य और सामन्त निर्जीव, निराधार माटी के ढेर हो रहे । हताहत महानायक सिंहभद्र ने साहस बटोर कर पूछा : 'वैशाली का भविष्य क्या है, भन्ते त्रिलोकीनाथ ?' 'वैशाली का भविष्य है, केवल महावीर ! और सब कुहेलिका है, मरीचिका है ।' 'तब तो वैशाली की अन्तिम विजय निश्चित है, भगवन् ।' तीर्थंकर : अप्रैल ७९ / २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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