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________________ लाखों अश्रु-विगलित कण्ठों से जयध्वनि गुंजायमान हुई : 'परम क्षमावतार, प्रेमावतार, अहिंसावतार भगवान महावीर जयवन्त हों।' एक महामौन में श्री भगवान अदृश्यमान होते-से दिखायी पड़े । और लक्ष-कोटि मानवों ने अनुभव किया कि वे उनके हृदयों में भर आये हैं। अचानक सुनायी पड़ा : 'महावीर की अहिंसा वैशाली में मुर्त हो । महावीर की क्षमा वैशाली की धरित्री हो। महावीर का प्रेम वैशाली में राज्य करे। वह उसे विश्व की सर्वोपरि सत्ता बना दे। वैशाली की प्रजा ही यह कर सकती है, उसका राज्य नहीं, उसका सत्तासिंहासन नहीं।" तभी जनगण का एक तेजस्वी युवा तरुण सिंह की तरह कूद कर सामने आया: 'वैशाली में गृह-युद्ध की आग धधक रही है, भगवन् । महावीर को यहाँ मूर्त करने के लिए, यह गृहयुद्ध हमें लड़ लेना होगा। हम इसी क्षण प्रस्तुत हैं। श्री भगवान आज्ञा दें, तो गृहयुद्ध का शंखनाद करूँ, और हम इन राजन्यों से वैशाली की सड़कों पर निपट लें। वैशाली के भाग्य का फैसला हो जाए।' _ 'गृहयुद्ध अनिवार्य है, युवान् । यह सर्वत्र है। उसे लड़े बिना निस्तार नहीं। हर मनुष्य अपने भीतर एक गृहयुद्ध ले कर जी रहा है। रक्त, मांस, हड्डी, मज्जा, मस्तिष्क, हृदय, प्राण, मन, साँस, बहत्तर हजार नाड़ियाँ, सब एक-दूसरे के साथ निरन्तर युद्ध लड़ रहे हैं। साँस और साँस के बीच युद्ध है। घर-घर में गृहयुद्ध अनिर्वार चल रहा है। मनुष्य और मनुष्य के बीच, मित्र और मित्र के बीच, आत्मीय स्वजनों के बीच भी निरन्तर गृहयुद्ध बरकरार है। वस्तुओं और व्यक्तियों के बीच हर समय लड़ाई जारी है। हम एक-दूसरे के घर में घुसे बैठे हैं। हम परनारी पर बलात्कार करने की तरह एक-दूसरे के भीतर बलात् हस्तक्षेप कर रहे हैं। हम अपने घर में नहीं, दूसरे के घर में जीने के व्यभिचार से निरन्तर पीडित हैं। तेजस्वी युवान् अपने में लौटो, अपने साथ शान्ति स्थापित करो। अपने स्वभाव के घर में ध्रुव और स्थिर हो कर रहो। अपने आत्मतेज को अपराजेय बना कर, निश्चल शान्ति में वैशाली के संथागार का द्वार तमाम प्रजाओं के लिए खोल दो। वहाँ विराजित प्रजापति ऋषभदेव के सिंहासन पर से अष्टकुलक नहीं, वैशाली का जनगण राज्य करे। अपने भाल के सूरज से लड़ो युवान, ताकि राजन्यों के सारे शस्त्रागार उसके प्रताप में गल जाएँ। और उस गले हुए फौलाद में हो सके तो महावीर को ढालो। उस वज्र में महावीर के मार्दव, आर्जव, प्रशम, प्यार और सौन्दर्य को मूर्त करो।' तभी जनगण का एक और युवान वह्निमान होकर उठ आया : 'वैशाली में रक्त-क्रान्ति हो कर रहेगी, भगवन् ! उसके बिना जनराज्य सम्भव नहीं। राज्य-दल और उसके पृष्ठ-पोषक श्रेष्ठी-साहुकार एक ओर हैं। और समस्त तीर्थकर : अप्रैल ७९/२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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