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है। उसे यहाँ कौन पहचानेगा? फिर भी लाखों वैशालक उसे पहचानते हैं और प्यार करते हैं, लेकिन उनकी पहचान और प्यार यहाँ निर्णायक नहीं। वह मूल्य और व्यवस्था का मानदण्ड नहीं । . .'
क्षणक चुप रह कर श्रीभगवान फिर बोले :
"अर्हत् महावीर अपने पूर्ण सौन्दर्य के मुख-मण्डल को देखने का दर्पण खोज रहा है। वैशाली के कांचन-कामी के दर्पण में वह चेहरा नहीं झलक सकता। तमाम प्रजाओं की असंख्य आँखों में मेरे सौन्दर्य का दर्पण खुला है, निःसन्देह, लेकिन सत्ता
और सम्पत्ति के खुनी व्यापारों और युद्धों ने उसे अन्धा कर रक्खा है। निर्दोष और घायल प्रजाएँ, अपने भगवान प्रजापति को प्यार करने और पहचानने से वंचित और मजबूर कर दी गयी हैं। महावीर अपना चेहरा देखने को एक अविकल दर्पण खोज रहा है। क्या वैशाली वह दर्पण हो सकेगी ?'
सर्वशक्तिमान, वीतराग प्रभु का स्वर कातर और याचक हो आया । ·और वैशाली के लाखों प्रजाजन सिसक उठे। उनके घुटते आक्रन्द में ध्वनित हआ : 'झाँक सको तो इन फटते हृदयों में झाँको, देख सको तो देखो इनमें अपना चेहरा ।
और गांधारी रोहिणी स्त्री-प्रकोष्ठ से छलांग मार कर गन्धकुटी के पादप्रान्त में आ खड़ी हुई। और पुकार उठी :
__ 'रोहिणी यहाँ भी निःशस्त्र नहीं आयी, नाथ, जहाँ हर कोई अपना शस्त्र बाहर छोड़ आने को बाध्य है। लेकिन रोहिणी अपना अन्तिम तीर लेकर यहाँ आयी है। ताकि उसकी नोक में तुम अपना चेहरा देख सको। . . '
और रोहिणी ने अपनी बाहु के धनुष पर उस तीर को तान कर, उससे अपनी छाती बींध देनी चाही। _ 'रोहिणी, तुम्हारा यह तीर महावीर की छाती छेदने को तना है। महावीर प्रस्तुत है, जो चाहो उसके साथ करो।'
रोहिणी चक्कर खा कर, वहीं चित हो गयी। तीर अधर में स्तम्भित रह गया। और रोहिणी के हृदय-देश से रक्त उफन रहा था। श्री भगवान ने अपने तृतीय नेत्र से उसे एकाग्र निहारा । - वह रक्त एक रातुल कमल में प्रफुल्लित हो उठा।
"माँ वैशाली के हृदय में महावीर ने अपना अमिताभ मुख-मण्डल देखा। जनगण की असंख्य आँसू भरी आँखों में केवल महावीर झांक रहा है। तीर्थंकर महावीर कृतकाम हुआ। उसे अपना दर्पण मिल गया। मुझे लो वैशालको। मुझे अपने में ढालो। मुझे अपने आश्रय में देकर इस अन्तरिक्षचारी को धरती दो, आधार दो। मेरी कैवल्य-ज्योति को सार्थक करो।'
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/१९
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