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'वैशालक तीर्थंकर महावीर वैशाली के प्रति इतने निर्दय, इतने कठोर क्यों हैं ? अहिंसा के अवतार कहे जाते महावीर को, वैशाली के प्रति इतना वैर क्यों है ?'
'अहिंसा के अवतार से बड़ा हिंसक और कौन हो सकता है ? क्योंकि वह स्वयम् हिंसा का हिंसक होता है ।'
'तो उसका आखेट वैशाली क्यों हो ?'
'क्योंकि वैशाली महावीर न हो सकी, पर महावीर वैशाली हो रहने को बाध्य है। लोक में विश्वरूप महावीर वैशाली का प्रतिरूप माना जाता है, क्योंकि वह वैशाली की मिट्टी में से उठा है। वह अपनी जनेत्री धरिणी को इतनी कदर्य और कुशील नहीं देख सकता । जो पूर्णत्व मुझमें से प्रकट हुआ है, वह वैशाली का अणु-मात्र अपूर्णत्व भी सह नहीं सकता। तो वह वैशाली के पतन को कैसे सहे, वह इतनी जघन्य कुत्सा और कुरूपता को कैसे स्वीकारे ?'
‘दया के अवतार महावीर वैशाली पर दया तो कर ही सकते हैं।'
'महावीर सर्व पर दया कर सकता है, पर अपने ऊपर नहीं। वह सर्व को क्षमा कर सकता है, पर अपने को नहीं। इसी से महावीर अपने हत्यारे और बलात्कारी श्रेणिक को क्षमा कर सका, लेकिन वैशाली को क्षमा न कर सका। सारे जम्बुद्वीप में आज वैश्य और वेश्या-राज्य व्याप्त है । लेकिन अपनी जनेता वैशाली को महावीर वेश्या नहीं देख सकता। भगवती आम्रपाली का सौन्दर्य जहाँ एक हजार सुवर्ण के नीलाम पर चढ़ा है, वहाँ भगवान् महावीर का वीतराग सौन्दर्य भी शर्त और सौदे की वस्तु हो ही सकता है। उसके अभिषेक और पूजा की भी यहाँ बोलियाँ ही लगायी जा सकती हैं। जो सब से बड़ी बोली लगा दे, वही महावीर का प्रथम अभिषेक और पूजन करे !'
रुदन से फूटते कण्ठ से रोहिणी चीत्कार उठी :
'त्रिलोकीनाथ का यह अत्याचार अब और नहीं सहा जाता । वैशाली की लक्षलक्ष प्रजा तुम्हारे पगों में पाँवड़े होकर बिछी है, उसकी ओर तुमने नहीं देखा । क्या अष्टकुलक गणराजा ही वैशाली हैं, यह विशाल प्रजा वैशाली नहीं ?'
'वैशाली की धरती पर इसकी प्रजा का राज्य नहीं, राजवंशी अष्टकुलक राज्य करते हैं । यहाँ व्यवस्था उनकी है, प्रजा की नहीं। प्रजा की छन्द-शलाकाएँ (मतदान), उनके धूर्त और वंचक गणतंत्र का मुखौटा मात्र है । वैशाली और अम्बपाली को किसी चाण्डाल या चर्मकार या कुम्भार ने वेश्या नहीं बनाया, उसे वेश्या बनाया है, उसके सत्ताधारियों और साहुकारों ने। उन्होंने, जो सृष्टि के कोमलतम हृदय और सौन्दर्य को भी क्रय-विक्रय के पण्य में ले आते हैं । जहाँ पुरुष स्त्री से सम्भोग नहीं करता, सुवर्ण, सुवर्ण से सम्भोग करता है। जिनके कानून में मनुष्य, मनुष्य को प्यार नहीं करता, पैसे-पैसे को प्यार करता है। जहाँ अघोर चैतन्य पर घनघोर जड़त्व का फौलादी पंजा बैठा हुआ है। जहाँ अर्हन्त का सौन्दर्य भी कांचन की कसौटी पर ही परखा जा सकता
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/१८
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