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शंका है, भय है; जिसमें सदा खो जाने का, बिछुड़ जाने का दंश है, जिसमें सदा पर-भाव का आतंक है, संदेह है, उद्वेग है, व्याकुलता है; वह काम नहीं, कर्दम है; वह प्रेम नहीं, पीड़न है, पराजय है, पाप है । वह आप से बिछुड़ जाना है।
___'वैशालको, आप हए बिना पाप से निस्तार नहीं। तुम्हारा काम, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा राज्य, तुम्हारा सुख, तुम्हारा विलास, सभी कुछ तो परतन्त्र है। परतन्त्र न होता, तो भयभीत क्यों होता ? तुम्हारा प्रणय-काम स्वतंत्र होता तो वह कायर होकर महावन के अन्धकारों में चोरी-चोरी क्यों क्रीड़ा करता? तुम्हारा राज्य स्वतंत्र और निर्भय होता, तो तुम्हारे नगर-प्राचीर सैन्यों और शस्त्रों से पटे क्यों होते ? तुम्हारा सुख और विलास स्वतंत्र होता, तुम्हारा ऐश्वर्य और वैभव स्वतंत्र होता, तो वह लक्षलक्ष जन के शोषण और पीड़न पर निर्भर क्यों होता ? तुम्हारा सब कुछ पराधीन, है, तुम कैसे स्वतंत्र, तुम कैसे प्रजातंत्र ? जिस वैशाली का सहज काम भी गुलाम है उसकी स्वतंत्रता शून्य का अट्टहास्य मात्र है ! • • •
श्री भगवान हठात् चुप हो गये। तभी एक वैशालक युवा सामन्त का तीव्र प्रतिवाद स्वर सुनायी पड़ा :
'वैशाली का काम गुलाम नहीं, भन्ते महाश्रमण, उसका प्रेम पराधीन नहीं भन्ते भगवान् । स्वतंत्रता ही हमारे विदेह देश की एक मात्र आराध्य देवी है। सर्वप्रिया देवी आम्रपाली हमारी उस स्वतंत्रता का मूर्तिमान विग्रह हैं। वे साक्षात् मुक्तिरूपा है। उन पर किसी एक का अधिकार नहीं हो सकता। सब उन्हें प्यार करने को स्वतंत्र हैं । स्वातंत्र्य का इससे बड़ा आदर्श पृथ्वी पर कहाँ मिलेगा, भगवन् ?'
'क्या देवी आम्रपाली भी किसी को प्यार करने को स्वतंत्र हैं ?' 'वे एक साथ सब को प्यार करने को स्वतंत्र हैं।' 'बेशर्त, बेदाम ?' सामन्त निरुत्तर होकर शन्य ताकता रह गया। प्रभु प्रश्न उठाते चले गये :
'क्या देवी आम्रपाली अपना प्रियतम चुनने को स्वतंत्र हैं ? क्या वे चाहें तो किसी अकिंचन चाण्डाल या निर्धन, निर्वसन भिक्षुक को प्रेम कर सकती हैं ?'
सारे लिच्छवियों की तहें काँप उठीं। भगवान बोलते चले गये :
'तुम्हारे सुवर्ण-रत्नों की साँकलों में जकड़ी है आर्यावर्त की वह सौन्दर्य-लक्ष्मी। तुम्हारे राज्य में सुवर्ण ही सौन्दर्य का एक मात्र मुल्य है। वही प्रेम-प्यार और परिणाम का निर्णायक है । तुम्हारे यहाँ चैतन्य काम भी जड़ कांचन का कैदी है। तुम्हारे यहाँ जड़ का निर्णायक चैतन्य नहीं, चैतन्य का निर्णायक जड़ पुद्गल है। यहाँ गणमाता गणिका होकर रहने को विवश है, वह गणराज्य नहीं, गणिका-राज्य है। . . . '
एक प्रलयंकर सन्नाटे में गण राजन्यों के क्रोध का ज्वालामुखी फट पड़ने को कसमसाने लगा । तभी सेनापति सिंहभद्र का रोषभरा तीखा प्रश्न सुनायी पड़ा।
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/१७
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