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________________ अचानक अब तक व्याप्त निस्तब्धता टट गयी। असंख्य और अविराम जयकारों की ध्वनियों से वैशाली के सुवर्ण, रजत और ताम्र कलशों के मण्डल चक्राकार घूमते दिखायी पड़ने लगे । और भगवान नाना वाजिंत्र ध्वनियों से घोषायमान, सुन्दरियों की कमानों से आवेष्टित वैशाली के पूर्व द्वार को पार कर, 'महावन उद्यान' की ओर गतिमान दिखायी पड़े। और तभी हठात् वैशाली के आकाश देव-विमानों की मणि-प्रभाओं से चौंधिया उठे। और देव-दुंदुभियों तथा शंखनादों से वैशाली के गर्भ दौलायमान होने लगे। अगले दिन सूर्योदय के साथ ही सारी वैशाली में जंगली आग की तरह यह सम्वाद फैल गया, कि कठोर कामजयी महावीर, वैशाली के जगत्-विख्यात केलि-कानन 'महावन उद्यान' में समवसरित हुए हैं । मदिरालय, द्यूतालय, वेश्यालय, देवालय से लगाकर भद्र जनों के लोकालय तक में एक ही अपवाद फैला हुआ है। जिस महावीर की वीतरागता लोकालोक में अतुल्य मानी जाती है, वह कुलिश-कठोर महावीर वैशाली के विश्व-विश्रुत प्रमदवन की रागरंग से आलोड़ित वीथियों में विहार कर रहा है। वैशाली का तारुण्य इस घटना से सन्त्रस्त और भयभीत हो उठा । क्या महावीर ने हमारी प्रणय-केलि के प्रमदवन को हम से छीन लेना चाहा है ? क्या वे हमारे युवा मन के मदन की विदग्ध और मादिनी लीला का मलोच्छेद करने आये हैं ? ऐसे महावीर हमारे क्रीड़ाकुल तन और मन के भगवान कैसे हो सकते हैं ? प्राण मात्र की सब से बड़ी ह्लादिनी शक्ति है काम । महाकाल शंकर ने परापूर्वकाल में जब क्रुद्ध होकर काम का दहन कर दिया था, तो सारी सृष्टि उदास हो गयी थी। शाश्वत संसार की लीला रुक गयी थी। काल की गति मूच्छित हो गयी थी। तब जगत की धात्री पार्वती ने दारुण तपस्या करके, फिर से शंकर को आह्लादित और प्रसन्न किया था। जगज्जननी ने दुर्द्धर्ष विरागी जगन्नाथ शंकर के मनातीत चैतन्य को फिर अपनी मोहिनी से अवश कर दिया था । तब फिर से कण-कण में कामदेव उन्मेषित होकर जाग उठे। शंकर की गोद में शंकरी उत्संगित हई, और सकल चराचर में फिर से प्राण की धारा प्रवाहित हो उठी। जगत उस महाप्रसाद से प्रफुल्लित और लीलायमान हो उठा। जीवन की धारा फिर अस्खलित वेग से बहने लगी। · · · मदन-दहन महेश्वर ने जिस काम के बीज को ही भस्मीभूत कर दिया था, उससे आखिर वे धूर्जटि भी हार गये। क्या उसी काम का मलोत्पाटन करने आये हैं तीर्थंकर महावीर ? तो उन्हें एक दिन निश्चय ही उससे हार जाना पड़ेगा । - ‘और इस भावधारा के साथ ही वैशाली के युवजनों और युवतियों का काम पूर्णिमा के समुद्र के समान सम्पूर्ण वेग से उद्वेलित होने लगा। · · ·ओह, यह कैसा परस्पर विरोधी चमत्कार है ? तीर्थकर : अप्रैल ७९/१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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