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___ सप्तभौमिक प्रासाद के द्वारपक्ष में अन्तरित कंगन का एक नीलाभ हीरा चमका और ओझल हो गया। सहस्रदीप आरती का नीराजन उठाकर देवी आम्रपाली ने डग भरनी चाही; लेकिन उनका वह पद्मराग चरण हवा में टॅगा रह गया । ...
किवाड़ की पीठ पर टिकी ठुड्डी और छाती पर एक बड़ी सारी आँसू की बूंद हरकती चली आयी । एक सिसकी फूटी। और आरती उठायी बाहें शिलीभूत हो रहीं। . . 'नहीं, मैं तुम्हारे योग्य न हो सकी। मैं तुम्हारी आरती कौन-सा मुँह लेकर उतारूँ। तुम सारे जगत के भगवान हो गये, लेकिन मेरे भगवान न हो सके । वैशाली का सूर्यपुत्र मेरा न हो सका, तो भगवान को लेकर क्या करूँगी ? भगवान नहीं• • मनुष्य चाहिये मुझे । मेरा एकमेव पुरुष । जो मुझे छू सके, मैं जिसे छु सकें । जो मुझे ले सके, मैं जिसे ले सकूँ। तुम तो आकाश होकर आये हो, तुम्हें कहाँ से पकडं । नहीं · · · नहीं · · नहीं - - मैं तुम्हारे सामने न आऊँगी । . .
देवी आम्रपाली का द्वार स्वागत-शून्य ही रह गया। वहाँ श्री भगवान की आरती उतारी गयी। अगले ही क्षण श्री भगवान चल पड़े। काल गतिमान हो गया । इतिहास वृत्तायमान हो गया । शोभायात्रा श्री भगवान का अनुसरण करने लगी। नगर के तमाम मण्डलों, चौराहों, त्रिकों, पण्यों, अन्तरायणों को धन्य करते हुए प्रभु अविकल्प क्रीड़ाभाव से वैशाली की परिक्रमा करते चले गये ।
अपराह्न बेला में श्री भगवान वैशाली के विश्व-विश्रुत संथागार के सामने से गुज़रे । असूर्यपश्या सुन्दरियों की उन्मुक्त देहों से निर्मित द्वार में प्रभु अचानक रुक गये । गान्धारी रोहिणी मामी ने जाने कितने भंगों में बलखाते, नम्रीभूत होते हुए माणिक्य के नीराजन में उजलती जोतों से प्रभु की आरती उतारी। उसकी आँखें आँसुओं में डब चलीं। श्री भगवान के अमिताभ मुख-मण्डल को हज़ारों आँखों से देखकर भी वह न देख पायी।
देवी रोहिणी ने कम्पित कण्ठ से अनुनय किया :
'वैशाली के सूर्यपुत्र तीर्थंकर महावीर, फिर एक बार वैशाली के संथागार को पावन करें। यहाँ की राजसभा प्रभु की धर्मसभा हो जाए। प्रभु वैशाली के जनगण को यहाँ सम्बोधन करें।'
सुनकर वैशाली के अष्टकुलक राजन्यों को काठ मार गया। उन्हें लगा कि वैशाली के महानायक की अर्धांगना स्वयम् वैशाली के सत्यानाश को न्यौता दे रही हैं । अचानक सुनायी पड़ा :
_ 'महावीर के सूरज-युद्ध की साक्षी होकर भी रोहिणी इतनी छोटी बात कैसे बोल गयी ! जानो गान्धारी, दिगम्बर महावीर अब दीवारों में नहीं बोलता, वह दिगन्तों के आरपार बोलता है। तथास्तु देवी। तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। शीघ्र ही वैशाली मुझे सुनेगी । मैं उसके जन-जन की आत्मा में बोलूंगा।'
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तीर्थकर : अप्रैल ७९/१३
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