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________________ जैसे सूर्य की प्रथम किरण पड़ते ही नीहारिका सिमट जाती है । और एक विशाल डग भर कर वह शलाका पुरुष वैशाली में प्रवेश कर गया। · · · यह क्या कि एक नीरवता जादुई सम्मोहन की तरह सारी वैशाली पर व्याप गयी। जनगण के हृदय में दिनों से उमड़ती जयकारें भीतर ही लीन हो रहीं । समस्त पौरजनों की चेतना एक गहरी शान्ति में स्तब्ध होकर श्री भगवान के उस नगर-विहार को देखने लगी। एक गहन चुप्पी के बीच सहस्र-सहस्र सुन्दरियों की गोरी बाँहें भवनवातायनों से श्री भगवान पर फूल बरसाती दिखायी पड़ी। हज़ारों-हजारों मण्डित श्रमणों से परिवरित श्री भगवान वैशाली के राजमार्ग पर यों चल रहे हैं, जैसे सप्त सागरों से मण्डलित सुमेरु पर्वत चलायमान हो। हिमालय और विन्ध्याचल उनके चरणों में डग भर रहे हैं । कभी वे कोटि सूर्यों की तरह जाज्वल्यमान लगते हैं, कभी कोटि चन्द्रमाओं की तरह तरल और शीतल लगते हैं। मानवों ने अनभव किया कि आँख और मन से आगे का है यह सौन्दर्य, जो प्रतिक्षण नित नव्यमान है। सब से आगे चल रहा है, हिरण्याभ सहस्रार के समान धर्मचक्र । भगवती चन्दनबाला की उद्बोधक अंगुलि पर मानो उसकी धुरी घूम रही है। और पुण्डरीक के उज्ज्वल वन जैसी सहस्रों सतियाँ भगवती को घेर कर चल रही हैं । और मानो कि श्री भगवान और उनके सहस्र-सहस्र श्रमण उनका अनुसरण कर रहे हैं । महाकाल शंकर ने जैसे शक्ति को सर्पमाला की तरह अपने गले में धारण किया है। घर-घर के द्वारों से नर-नारी के प्रवाह निकल कर नदियों की तरह, इस चलायमान महासमुद्र में आ मिले हैं । जहाँ से श्री भगवान अपने विशाल श्रमणसंघ के साथ गजर जाते हैं, पुरजन और पुरांगनाएँ वहाँ की धूलि में लोट-लोट कर अपनी माटी को धन्य कर रहे हैं। और अथाह नीरवता के बीच यह शोभायात्रा चुपचाप चल रही है। ____ अनेक चक्रपथों को पार करती हुई यह शोभायात्रा, वैशाली के प्रमुख चतुष्क में प्रवेश करती हुई मंथर हो चली है। · · · सप्तभौमिक प्रासाद के सामने आकर श्री भगवान हठात् थम गये। सुवर्ण-मीना-खचित इस वारांगना-महल के प्रत्येक द्वार, वातायन, गवाक्ष, छज्जे पर से अप्सरियों-जैसी हजारों सुन्दरियाँ फूलों और रत्नों की राशियाँ बरसाती हुई अधर में झूल-झूल गयीं। प्रमुख द्वार उत्कट प्रतीक्षा की आँखों-सा अपलक खुला है। समस्त पुरजनों की दृष्टि द्वार पर एकटक लगी है, कि अभी-अभी देवी आम्रपाली वहाँ अवतीर्ण होंगी। वे अपनी कर्पूरी बाँहें उठाकर श्री भगवान की आरती उतारेंगी, लेकिन उस द्वार का सूनापन ही सर्वोपरि होकर उजागर है । . . - श्री भगवान रुके हुए हैं, तो काल रुक गया है। सारी स्थितियाँ और गतियाँ स्तम्भित होकर रह गयी हैं। मानव मात्र मानो मनातीत होकर केवल देखता रह गया है। तीर्थंकर : अप्रैल ७९/१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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