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________________ प्रासाद के आगे से निकलोगे । कैसे करूँ तुम्हारी अगवानी ? क्या है इस वारवनिता के पास, तुम्हें देने को ? एक कलंकित रूप, सुवर्ण के नीलाम पर चढ़ी भोगदासी ! ' ...और आम्रपाली से आयी । उसका जी चाहा कि ठण्डी रत्न - शिलाओं पर सर पछाड़ दे | क्या करे वह ? नहीं, आज क्षोभ नहीं । मेरा भवन तुम्हारी अगवानी करेगा । लेकिन मैं ? पता नहीं... ... और अगले ही क्षण देवी आम्रपाली की आज्ञा सप्तभूमिक प्रासाद के खण्डखण्ड में सक्रिय हो गयी । विपल मात्र में सारे महल में सुन्दरियों और परिचारिकाओं के आवागमन, और मंगल आयोजन का उत्सव मच गया। राशिकृत पुष्पमालाओं से प्रवाहित अष्टगन्ध धूप की धूम्र - गन्ध ने सारे वातावरण को पावनता से प्रसादित कर दिया। मुखं द्वार के गवाक्षों में शहनाइयों, शंखनादों और दंदुभियों की ध्वनियाँ गूंजने लगीं। देवी आम्रपाली के प्रासाद के सारे द्वार, वातायन, गवाक्ष और छज्जों पर फूलों में बिछलती सुन्दरियाँ नृत्य कर उठीं । और प्रासाद के जाने किस अज्ञात गोपन कक्ष में से 'शिवरंजिनी' की धीर प्रीत रागिनी वीणा में समुद्र-गर्भा हो कर गहराती चली गयी । सारी वैशाली चकित हो गयी । देवी आम्रपाली के घर आज किसकी पहुनाई है, वैशाख की इस सन्नाट-भरी तपती दोपहरी में ? लेकिन हाय, हमारे प्रभु नहीं आये । जाने कहाँ अटके हैं ? जन-जन के हृदय ने पीड़ा की एक टीसती अंगड़ाई भरी । हाय, हमारे भगवान नहीं आये । सिंह पौर पर बजती शहनाई में प्रतीक्षा की रागिनी अन्तहीन रुलाई होकर गूंज रही है । ' और ठीक तभी वैशाली के पश्चिमी द्वार पर एक दस्तक हुई । जब से मगध के साथ वैशाली का शीत युद्ध जारी है, बरसों से नगर के उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के द्वार बन्द हैं । परकोट सेनाओं से पटे हैं, और बन्द द्वारों पर कीले, भाले और बल्लम गड़े हैं । केवल पूर्वीय सिंहतोरण से ही सारा आवागमन होता है । और श्री भगवान का आगमन भी नगर के पूर्वीय और प्रमुख तोरण-द्वार से ही तो हो सकता था । सो वहीं तो सारे स्वागत के आयोजन थे । वहीं कुमारी देहों के तोरण तने थे, वहीं रोहिणी मामी अविचल पग, मंगल कलश साजे खड़ी थीं। इस क्षण वे मूच्छित गयी हैं । और देवी को वहाँ से उठाने की हिम्मत, स्वयम् उनके आर्यपुत्र सिंह सेनापति भी नहीं कर पा रहे हैं । 1 मध्याह्न का सूर्य आकाश के बीचोबीच तप रहा है । और ठीक उसके नीचे सहस्रार के चन्द्रमण्डल-सा एक दिगम्बर पुरुष, वैशाली के शूलों और साँकलों - जड़े बन्द पश्चिमी सम्मुख आ खड़ा हुआ है। उसने सहज आँखें उठा कर द्वार की ओर देखा । और विपल मात्र में सामने जड़े शूल और साँकल फूलमाला की तरह छिन्न हो गये । अर्गलाएँ पानी की तरह गल कर ढलक पड़ीं। और वे प्रचण्ड वज्र- कपाट हठात् यों खुल गये, तीर्थंकर : अप्रैल ७९/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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