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को त्रिलोकी के सिंहासन चढ़ा दिया। उस छबि के आगे तुम अपने धनुष-बाण फेंक आयीं, वीरांगना गान्धारी? धन्य है तुम्हारा वीरत्व !'
'मैंने पराजय का नहीं, परम विजय का दृश्य देखा, स्वामिन् । मैंने महावीर के एक कटाक्षपात-तले श्रेणिक बिम्बिसार को धूल में लौटते देखा। मैंने महावीर का वह सुरज-यद्ध देखा, जिसकी साक्षी रहने का आमंत्रण वे मझे दे गये थे। मैंने देखा कि अयुद्धयमान महावीर ने महायोद्धा श्रेणिक को पलक-मात्र में पछाड़ दिया है। मैं इन्हीं आँखों से देख आयी हूँ, आर्यपुत्र, कि श्रेणिक भम्भासार ने अपना वीरत्व, सम्राटत्व, सिंहासन, सम्पदा सब को महावीर के चरणों में हार दिया। वे खाली हो कर महलों में लौटे, और भीतर झांका तो पाया कि पोर-पोर में महावीर भर उठा है। वापसी में राजगृही के महालय गयी थी, और चेलना बुआ से मिलती हुई लौटी थी। बताया उन्होंने कि सम्राट तो प्रभु के प्रेम में पागल हो गये हैं। सारे दिन चेलना बुआ को बाँहों में भर--मेरे भगवान मेरे प्रभु मेरे महावीर-पुकारते रहते हैं। महानायक सिंहभद्र सुनें, श्रेणिक ने सिंहासन त्याग कर दिया है। मगध की गद्दी सूनी है। निःसन्देह चम्पा में हमारे दोहितृलाल अजातशत्रु राज कर रहे हैं; लेकिन मगध का साम्राजी सिंहासन खण्डित और सूना पड़ा है !'
___श्रेणिक और सिंहासन-त्याग ? क्षमा करें देवि, मेरी समझ काम नहीं करती।'
__'यह समझ की नहीं, बोध की भूमि है, आर्यपुत्र। महाभाव में ही यह अनुभूयमान है। आप आँखों से देख कर भी विश्वास न कर सकेंगे। तो उपाय क्या ?'
'त्रिलोकपति तीर्थंकर महावीर, कभी वैशाली नहीं आयेंगे, यह तुम मुझ से जान लो, देवि! ...'
"ठीक मध्याह्न का घंटा राज-द्वार में बजा। और गान्धारी रोहिणी अचानक आविष्ट-सी हो कर फूट पड़ी :
__ 'ओह तुम तुमने मुझे धोखा दे दिया, भगवान ? तुमने मेरी सारी अगवानियों को ठुकरा दिया ? निष्ठुर "तुम तुम आ गये मेरे नाथ ! लेकिन...'
सिंह सेनापति फटी आँखों से ताकते रह गये। अबूझ है यह लीला ! .
"अपनी मूर्छाओं में भी निरन्तर बेचैन, आम्रपाली ने अपने प्रासाद के अत्यन्त निजी कक्ष की शैया में करवट बदली। मच्छित आम्रपाली ने अनुभव किया कि-उसके वक्षोजमण्डल पर कमलों की चरण-चाप धरता यह कौन चला आ रहा है ? उसने चौंक कर आँखें खोली : 'ओह तुम आ गये ! सिंहपौर से नहीं आये। मेरे पौर से मेरी राह आना तुमने पसन्द किया। अभी-अभी तुम इस सप्तभूमि
तीर्थकर : अप्रैल ७९/१०
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