________________
· · ·और महावन उद्यान के समवसरण में अनाहत ओंकार ध्वनि के साथ, श्री भगवान ने प्रभा-मण्डल में से लोहित, पीत, कृष्ण, नील, और श्वेत ज्योति से स्फुरित 'ॐ' के असंख्य विग्रह ग्रह-नक्षत्रों की तरह प्रवाहित होने लगे। और हठात वह अनहद ओंकारनाद शब्दायमान हुआ :
'सत्य-प्रकाश सत्य-प्रकाश, सत्यानाश सत्यानाश, यही महावीर है, यही महेश्वर है। महेश्वर शंकर ने मदन-दहन किया था, सृष्टि में कुण्ठित हो गये सहज काम को निग्रंथ और मुक्त करने के लिए । विकृत हो गयी रति को, प्रकृत और सम्वित बनाने के लिए। पतित हो गये, काम के पुनरुत्थान के लिए। तब पार्वती की आत्माहुति में से नूतन और मुक्त काम उत्थायमान हुए। सृष्टि फिर सहज और प्रसन्न हो गयी। . .
श्री भगवान चुप हो गये । एक सन्नाटा वातावरण में कोई अपूर्व सम्वेदन उभारने लगा । मौन इससे अधिक गर्भवान शायद पहले कभी न हुआ । अनायास पारमेश्वरी दिव्यध्वनि उच्चरित होने लगी :
___ 'ओ वैशाली के तरुणो, तुम महावीर से नाराज़ हो गये ? सुनो, मेरे प्रियतम यवजनो, कल की सन्ध्या में वैशाली पूर्णिमा का उदीयमान पीताभ चन्द्रमण्डल 'महावन' में झाँकता दिखायी पड़ा। परम प्रिया के आनन का दर्शन पाया। प्रमद वन की कोयल ने डाक दी। उसके आम्रवनों की अंबियों ने मुझे अपने में खींचा। औचक ही एक बाला किसी आम्र डाल से अँबिया-सी चू पड़ी। वह अंगड़ाई लेती हुई उठी, और नाना भंगों में अपने तन को तोड़ती हुई, सारे महावन में एक उन्मादक लास्य-नत्य करने लगी। अचक था अनंग का वह आवाहन । और अनंगजयी महावीर बरबस ही मोहरात्रि के उस महाकान्तार में प्रवेश कर गया । अखण्ड रात उसके मेचक केशों की शैया में महावीर अधिक से अधिकतर दिगम्बर होता गया। यहाँ तक कि उसका तन ही तिरोधान पा गया । केवल एक नग्न लौ उस निखिल-मोहिनी के वक्षोज-मण्डल पर खेलती रही। और उसमें वह परम कामिनी गलती रही, गलती रही, और अन्ततः निरी नग्न विदेहिनी होकर उस नग्न जोत में मिल गयी। . . '
. और श्री भगवान सहसा ही चुप हो गये; किन्तु एक महाशून्य अनेक मण्डलों में उत्थान करता हुआ, सष्टि के स्रोत पर नये बीजाक्षर लिखता रहा । श्री भगवान का क्षण-मात्र का मौन, निर्वाण का तट छू कर फिर मुखरायमान हुआ :
___ 'वैशाली के विलासियो, वारांगनाओ, प्रणयाकुल युवा-युवतियो, मैं तुम्हारे केलि-कानन में चला आया, तो कल साँझ तुम वज्राहत से रह गये। अपने मनों को मारकर महावन के किनारों से ही लौट आये। मेरे वहाँ होते, तुम्हें अपने प्रमदवन में प्रवेश करने की हिम्मत न हुई। तुम खिन्न और उदास हो गये।
___ तो क्या मान लूँ कि तुम्हारा प्रमदवन पापवन है ? मान लँ कि सन्ध्याओं और रात्रियों में तुम वहाँ रमण करने नहीं आते, प्यार करने नहीं आते, पाप करने आते हो? जहाँ पाप हो, वहीं दुराव हो सकता है । जहाँ आप हो, वहाँ दुराव कैसे हो सकता है ?
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/१५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org