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हजारों-हजारों मुण्डित श्रमणों से परिवरित श्री भगवान् वैशाली के राजमार्ग पर यों चल रहे हैं, जैसे सप्त सागरों से मण्डलित सुमेरु पर्वत चलायमान हो। हिमालय और विन्ध्याचल उनके चरणों में डग भर रहे हैं। कभी वे कोटि सूर्यों की तरह जाज्वल्यमान लगते हैं, कभी कोटि चन्द्रमाओं की तरह तरल और शीतल लगते हैं। मानवों ने अनुभव किया कि आँख और मन से आगे का है यह सौन्दर्य, जो प्रतिक्षण नित नव्यमान है।
तीर्थकर : अप्रैल ७९/६
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