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________________ महसूस किया था और इसीलिए उनका ध्यान एक आत्मनिर्भर मुक्त जीवन की ओर गया था। उनका तन-मन मनुज बनने के लिए छटपटाया था; उनकी यह छटपटाहट ही उनके 'तीर्थकरत्व' की निशानी थी। जब कोई मनुष्य बनने के उपाय और प्रयत्न में होता है, तब वह असल तीर्थयात्रा की चित्तवृत्ति में होता है, अन्यथा आवश्यक नहीं है कि कोई मनुष्य की देह में मनुष्य ही हो। कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जब मनुष्य की देह में एक जंगली जानवर दिखायी दिया है। दूसरी ओर ऐसी मिसालें भी हमारे सामने आयी हैं जब एक पशु ने अत्यन्त मानवीय व्यवहार किया है। एक धार्मिक तथ्य है कि जब एक पशु भी मनुष्यता की ओर पग उठाता है तो वह तीर्थकरत्व की तैयारी करता है। 'तीर्थंकर' की सरलतम परिभाषा है-'मनुष्य बनते जाना'; और इस तरह मनुष्य का जो चरम विकास है वही 'तीर्थकरत्व' है। मनुजता के लिए दूसरा शब्द है स्वाभाविकता, निष्कर्षत: जब कोई अपनी स्वाभाविकता में लौटता है, आपे में आता है तब वह भगवान हो उठता है, और जब वही आपा खो बैठता है तब पशु, कहिये, उससे भी बदतर हो जाता है। वस्तुत: यह 'आपा' ही सब कुछ है, संसार के सारे धर्म इसे पाने का यत्न करते हैं। महावीर किसके पुत्र थे, कौन थी उनकी माता, कहाँ के थे वे, उनका विवाह हुआ था/नहीं हआ था आदि व्यर्थ की तफसीलों में सर मारने की जगह यह जानना जरूरी है कि उन्होंने 'मनुष्य होना हर कदम पर आवश्यक है' इसकी अनभति कैसे की, और वे उस समय जब कि चारों ओर बर्बरता और बनली क्रूरता छायी हुई थी, किस तरह अधिक मनुष्य होते चले गये; कठिनाइयाँ हुईं, संघर्ष हए किन्तु उनकी दुर्द्धर साधना रुकी नहीं और वे अन्ततः 'तीर्थंकर' यानी 'पूर्ण मानव' बने। इसलिए हम जरूर सोचें कि इस जयन्ती पर हम मनुष्यता की रेखा के ऊपर गये हैं, या उसके नीचे आये हैं; वस्तुत: इस तरह की तटस्थ समीक्षा ही हमारे जीवन में बहुत कुछ ऐसा सिरज सकती है जो हमारे लिए मंगलकारी तो होगा ही, आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सुखदायी होगा। "वे, जो सत्ता की मूर्धा पर बैठे हैं। वे ही यदि स्वच्छ न हों; तो शासन कैसे स्वच्छ रह सकता है, महाराज। और शासन स्वच्छ न हो, तो प्रजा कसे स्वच्छ रह सकती है ? पहले शासक भ्रष्ट होता है, तब प्रजा भ्रष्ट होती है । भ्रष्टाचार का मूल मूर्द्धन्य सत्ताधीश में होता है। वह मूलतः शासन में नहीं, शासित में नहीं, सत्ताधारी में होता है। पहले वह अपना निरीक्षण करे, तो पायेगा कि उसके भीतर न्यस्त स्वार्थ के कैसे-कैसे गुप्त और सूक्ष्म अंधेरे सक्रिय हैं। वही पाप के विषम अंधेरे सारे राष्ट्र की नसों में व्याप्त होकर, उसे घुन की तरह खा जाते हैं। इस भ्रष्टाचार के मूलोच्छेद की पहल कौन करे, देवानुप्रिय चेटकराज ?" वैशाली का भविष्य : केवल महावीर ? → →→ तीर्थंकर : अप्रैल ७९/५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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