________________
औसत आदमी के लिए होता है और इस तरह वे सारे लोग वंचित रह जाते हैं जो या तो औसत माप से ऊपर होते हैं या उससे नीचे। क्या इन दोनों की अपनी कोई हैसियत नहीं है ? अत: जरूरी है कि सर्वजनहिताय हम समारोहों की शक्ल बदलें और व्यक्ति को उसका काम्य दें।
उक्त विचार को स्पष्ट करने के लिए यदि आप समवसरण को लें तो देखेंगे कि वे ऐसे समारोह थे जिनमें हर व्यक्ति की अपनी सत्ता, महत्ता, स्वतन्त्रता बनी हुई थी और वह अपने वजूद में आनन्दित और उमंगित था; जो जहाँ था वहाँ वह अपनी भाषा में सब कुछ समझता था और ऊपर उठता था। यहाँ दो तथ्य सामने आते हैं। एक, यह कि महावीर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते थे जिसे उनके समकालीन छोटे-बड़े सब जानते थे; दो, या फिर व्यक्ति इतना जाग जाता था कि उसकी समझ में सारी कठिनाइयाँ स्वयमेव समाहित हो जाती थीं। एक स्थिति वह भी है जब किसी समूह अथवा व्यक्ति के लिए चरित्र ही सबमें बड़ी भाषा बन जाता है और उसे जड़ किताब की जगह जीवन्तता अधिक प्रभावशाली लगने लगती है। वस्तुत: भाषा वहाँ बिलकुल फीकी-फस्स हो जाती है जहाँ वह जीवन की जीवन्तता से विरक्त हो उठती है। ऐसे में घटनाओं के निर्जीव विवरण महत्त्वहीन हो जाते हैं और घटनाएँ असरकारक बन जाती हैं। इस संदर्भ में हम स्पष्ट ही देख सकते हैं कि महावीर की भाषा अक्षरात्मक नहीं थी वह घटनात्मक या चरित्रात्मक थी। भाषा का यह रूप आज समाज में लुप्त हो गया है; यदि इसे हम लौटा सकें समारोहों के माध्यम से, तो यह हमारी एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी।
एक बात और, और वह यह कि हम ध्यान से देखें कि क्या द्वार खटखटा रही/गयी जयन्ती हमें एक बेहतर मनुज बना कर जा रही है, या हम पहले जहाँ थे वहाँ से ऋण हुए हैं, घटे हैं ? समीक्षा करने पर लगता है कि इन दिनों हर समारोह हमें कुछ देने की जगह हमसे कुछ छीन रहा है। हम जो हो रहा है उससे बौने हो रहे हैं, हमारी उदारता और सहिष्णुता निरन्तर घट रही है। कुल में, हमारी दोस्ती "-" से बढ़ रही है "+" या गुणन "x" से घट रही है। यानी किसी भी समारोह की संपन्नता के साथ हम पीछे की ओर गये हैं, हमारा क़दम आगे की ओर नहीं गया है। क्या हम इस सबकी समीक्षा के लिए तैयार हैं, या परम्परानुसार घबरा कर उसे नियति पर छोड़ देना चाहते हैं ?
इस संदर्भ में जब हम यह सवाल करते हैं कि महावीर कौन थे? तो उत्तर आता है सुदूर अतीत से कि वे अव्वल एक मनुष्य थे, बाद कुछ और। उन्होंने अनुभव किया था कि राजसी वैभव में कोई मनुष्य नहीं बना रह सकता। इसके मद में वह कुछ-का-कुछ हो जाता है, यहाँ तक कि वह एक अच्छा साथी भी नहीं बना रह सकता। उन्होंने एक शासक की परतन्त्रताओं और मानवीय सीमाओं को
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org