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संपादकीय
इतना तो करें ही
क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि इस जयन्ती ने, जो आज हमारा द्वार खटखटा रही है, पहले और कितनी बार हमारे द्वार खटखटाये हैं ? बीसियों बार ऐसा हुआ होगा, फिर यह बात बिलकुल जुदा है कि हम इससे प्रभावित हुए अथवा कोरमकोर रह गये। प्रायः अवसर द्वार तक आते हैं और हम चूक जाते हैं। इसीलिए महावीर बारबार गौतम से कहते हैं ---गौतम, अप्रमत्त बनो, समय मत चको। 'समय' पर जितना ध्यान महावीर और उनके समकालीनों का है, आज उतनी ही अवहेलना उसकी हमारे द्वारा हो रही है। आज न तो 'समय' का अर्थ ही हम ठीक से जानते हैं और न ही समय पर समय को शुभ्रतर करने का कोई प्रयत्न ही करते हैं; पद, प्रभुता, और पैसा आज हमारे चरित्र पर इतने हावी हैं कि महावीर का व्यक्तित्व उस व्यर्थ भार से लगभग पूरी तरह दब कर निस्तेज हो गया है।
समारोह हम करें, उनसे हमारी सामुदायिकता उपकृत होती है; निकट आते हैं हम एक-दूसरे के, समझ भी बनती है आपस में, किन्तु व्यक्ति बेचारा प्यासा
और कुण्ठित छूट जाता है। महावीर ने अपने युग में इस समझ पर सबसे अधिक ध्यान दिया था। उनकी देन ही मुख्य यह है कि उन्होंने अपने समकालीन समाज
और व्यक्ति-चित्त को निर्धान्त बनाया था और मनुजता को स्व-स्थ किया था। उनका युद्ध अन्धकार से था और वे उसमें विजयी हुए थे।
इसलिए समारोह हों और बेहिसाब हों, किन्तु उनमें से सदाचार खड़ा हो; कहीं ऐसा न हो कि हर समारोह हमसे सदाचार की एक बड़ी किश्त छीन जाए और हम धर्म के कंकाल को ढोते रहें; क्योंकि धर्म सदाचार के बिना एक निष्फल वृक्ष है, और सदाचार बिना धर्म के एक ऐसा झाड़ है जिसकी कोई जड़ नहीं है। इस दृष्टि से जब हम संपन्न समारोहों की समीक्षा करते हैं तब पाते हैं कि विगत में हर समारोह हमसे कुछ छीन ले गया है और हमें अधिक ग़रीब कर गया है; ऐसा आखिर क्यों हुआ है ? महज़ इसलिए कि जो-जैसा बर्ताव हमें इन समारोहों के साथ करना चाहिये था हम उनके साथ वह-वैसा नहीं कर सके हैं।
वस्तुत: यह है यों कि आज हम धार्मिक पर्व-त्योहार को बड़ी केन्द्रित शैली में मना रहे हैं। किसी एक समारोह को एक ही जगह एक नगर में क्यों मनाया जाए ? क्यों न उसे हम हर मोहल्ले में इस तरह मनायें कि वह व्यक्ति और सम्ह दोनों के पास समानान्तर पहुँचे और एक-जैसे बल से उन्हें प्रभावित करे? मनोविज्ञान यह है कि जब बहुत सारे लोग एकत्रित होते हैं तब सारा संयोजन
तीर्थंकर : अप्रैल ७९/३
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