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वैशाली का भविष्य, केवल महावीर ?
(हिन्दी के कथा-हस्ताक्षर श्री वीरेन्द्रकुमार जैन के सुविख्यात उपन्यास 'अनुत्तर योगी : तीर्थंकर महावीर के अप्रकाशित चतुर्थ खण्ड का प्रथम अध्याय)
आज से बाईस वर्ष पूर्व की बात है। वैशाली के यायावर राजपुत्र वर्द्धमान पहली और अन्तिम बार वैशाली आये थे। अपने ही द्वार पर अतिथि की तरह मेहमान थे। अपने ही घर के उस सयाने बेटे की वह निराली भंगिमा देख सारी वैशाली पागल हो उठी थी। विदेह देश की प्रजाओं को लगा था कि उनका एकमेव राजा आ गया, एकमेव प्रजापति आ गया ; जिसकी उन्हें चिरकाल से प्रतीक्षा थी।
फिर महावीर संथागार में बोले थे। तो इतिहास की बुनियादों में विप्लव के हिलोरे दौड़े थे। वैशाली के गौरव को उन्होंने झंझोड़ कर जगाया था। बेहिचक अपने ही घर में आग लगा दी थी। · · तब संथागार में प्रबल आवाज़ उठी थी : 'आर्य वर्द्धमान वैशाली के लिए खतरनाक हैं। उन्हें वैशाली से निर्वासित हो जाना चाहिये।'
और वर्द्धमान ने हँस कर प्रतिसाद दिया था : ‘मेरा चेतन कब से वैशाली छोड़ कर जा चुका। अब यह तन भी वैशाली छोड़ जाने की अनी पर खड़ा है। लेकिन भन्ते गण सुनें, वैशाली का यह राजपुत्र, उससे निर्वासित हो कर उसके लिए और भी अधिक खतरनाक़ हो जाएगा।'
___आज वैशाली का वह बागी बेटा, तीर्थंकर हो कर प्रथम बार वैशाली आ रहा है। इस ख़बर से लिच्छवियों के अष्टकुलक सहम उठे हैं। गण-राजन्यों की भृकुटियों में बल पड़ गये हैं। राज्य-सभा संकट की आशंका से चिन्ता में पड़ी है। वयोवृद्ध गणपति चेटक सावधान हो कर सामायिक द्वारा समाधान में रहना चाहते हैं।
लेकिन जनगण का आनन्द तो पूर्णिमा के समुद्र की तरह उछल रहा है। विदेहों का सदियों से संचित वैभव और ऐश्वर्य पहली बार एक साथ बाहर आया है। वैशाली के सहस्रों सुवर्ण, रजत और ताम्र कलशों की गोलाकार पंक्तियाँ अकूत रत्नों के शृंगार से जगमगा उठी हैं। आकाश का सूर्य धरती के हीरों में प्रतिबिम्बित हो कर सौ गुना अधिक प्रतापी और जाज्वल्य हो उठा है।
सारे नगर में व्याप्त रंगारंग फूलों, पातों, रत्नों के तोरणों, बन्दनवारों और द्वारों तले रात-दिन हज़ारों नर-नारी नाच-गान में डूबे रहते हैं। हर चौक-चौराहे पर, उद्यानों और चौगानों में नाट्य और संगीत का अटूट सिलसिला जारी है। सारे विदेह देश की असूर्यम्पश्या सुन्दरियाँ जाने किस अमोघ मोहिनी से पागल हो
तीर्थकर : अप्रैल ७९/७
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