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________________ पढ़ते पढ़ते हंसो - संपादकीय बड़ा सटीक लगा तथा पूरा अंक ऐसा लगा कि 'हँसते-हँसते पढ़ो और पढ़ते-पढ़ते हँसो' । 'साधु-वाद' का आरंभ करके आपने एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति कर दी है। -आशा मलया, सागर मिश्रित चटनी का-सा स्वाद प्राकृत छहों अथवा साहित्यिक नौ में भी विशिष्ट बात ज्ञापित करता है। रसों की मिश्रित चटनी का-सा स्वाद 'प्रभाकर'जी सदा की तरह सदाबहारी ढंग आया। संपादकीय के गांभीर्य से होता 'प्रभा- से प्रस्तुत हुए हैं । फिर भी श्रीमती बेगानी, कर' के आनन्द के क्षणों की गुदगुदी एवं कु. अर्चना, डा. निजामउद्दीन अलग-अलग श्रीमती बेगानी की स्वस्थ सात्त्विक हँसी रंग प्रस्तुत करते हैं-हास्य के | जीवन के । का आस्वादन कर कुमारी अर्चना की वैचा- आपका 'उपासरे . . . ' जैन समाज रिक गहराई को विस्मित देख ही रहा था के उन लोगों के लिए विशेष 'रपट' है, जो कि निजाम साहब की 'शबे तारीक' ने अपने 'जैन धन' की चर्चा करते हैं, पर पहिघाव के विस्मृत दर्द को झटका देकर ताजा चानते नहीं । विशिष्ट प्रस्तुतीकरण है। कर दिया । : 'अंक संचरना के लिए उत्कृष्ट । साधुवाद । डा. कुन्तल गोयल, डा. प्रेमसुमन, श्री -कन्हैयालाल सरावगी, छपरा जमनालाल, श्री ललवानी भी गहरे उतरे तुलनाहीन हैं अपने लेखों में, उनकी रचनाएँ 'अनालगा हँसते-हँसते जीने के लिए सब तले यास' नहीं, सायास है। हुए हैं। मरने के लिए बिरले ही । तुलना विचित्र बात है इस अंक का काव्य, सर्वहीन है आपके संपादकीय का नया प्रयोग। श्री 'शशि', नरेन्द्रप्रकाश, उमेश अपने सहज-गणेश ललवानी, कलकत्ता सरल 'टोन' में विषय के विशेष को कहने में सफल हैं, प्रवीण हैं । श्री सेठिया और श्री मनोनुकूल सोनवलकर भी सहजता के दाशे पर आये संयक्तांक भी सदैव की भाँति मनो- हैं अपनी रचनाओं से । नकल । · पर इस बार लगा कि आपका -सुरेश 'सरल' जबलपुर नई विधा में लिखा संपादकीय ही अन्यान्य सभी लेखों पर गाढ़ी मलाई की भाँति तैर उल्लेखनीय अध्याय रहा है। -राजकुमारी बेगानी, कलकत्ता 'हँसते-हँसते जियो : हसते-हँसते मरों' विशेषांक वस्तुतः मानव-साहित्य की शृंखला हँसने की सीख में उल्लेखनीय अध्याय है । आपने जो अपनी संपादकीय के माध्यम से आप हँसते मौलिक डायरी लिखी है-'मन्दिरनहीं रहे हैं, हँसना सिखा रहे हैं। उपासरे' वास्तव में यह युग की मांग है कि -लक्ष्मीचन्द जैन, छोटी कसरावद इस पर नया मोड़ सेवा के लिए मिलना सारा अंक : एक नजर में । चाहिये। -मानकचन्द नाहर, मद्रास प्रस्तुत अंक का संपादकीय भी दम- महत्वपूर्ण दार है, वैचारिक है और कुछ करने | प्रस्तुत अंक आद्योपान्त पढ़ डाला । साधने को विवश करता है। सभी सामग्री महत्त्वपूर्ण है । डा. सुरेन्द्र वर्मा का लेख सहज संरचना -कल्याणकुमार जैन 'शशि' रामपुर तीर्थंकर : मार्च ७९/३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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