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अध्ययन और शोध (पी-एच. डी.) करने- निबन्ध-प्रषण और विस्तृत जानकारी के वालों के लिए गुरुकुल प्रारम्भ करने का लिए डॉ. नरेन्द्र भानावत, महामंत्री, भी निश्चय किया गया है, जिसमें पचास अ. भा. जैन विद्वत् परिषद्, सी-२३५ ए, विद्यार्थी रह सकेंगे।
तिलकनगर, जयपुर-३०२-०४ में से संपर्क ___ -श्री अ. भा. जैन विद्वत् परिषद द्वारा कर सकते हैं। दो निबंध प्रतियोगिताएँ आयोजित की जा -अ. भा. साधुमार्गी जैन संघ, बीकारही हैं । पहली का विषय है : 'जैन कर्म नेर द्वारा आयोजित राजश्री निबन्ध प्रतिसिद्धान्तः बन्ध और मुक्ति की प्रक्रिया' । योगिता में २० से ३० वर्ष तक के जैन युवकनिबंध ३ से ५ हजार शब्दों में हो सकता युवती सम्मिलित हो सकते हैं । क्रमशः तीन है। क्रमश: तीन पुरस्कार रु. ३००, २०० पुरस्कार रु. २५०, १५०, १०० के हैं। और १०० के हैं। निबन्ध भेजने की अन्तिम १९७९ की प्रतियोगिता का विषय है : तिथि ३१ मार्च, ७९ है। दूसरी प्रतियोगिता 'वर्तमान में मानव-जीवन में धर्म का १६ वर्ष तक के बालकों के लिए है, जिसका महत्त्व' । निबन्ध के पहुँचने की अन्तिम विषय है : 'आप कैसा साहित्य पढ़ना पसन्द तारीख १७ अप्रैल, ७९ रखी गयी है। करते हैं और क्यों ?' इसके क्रमशः तीन विस्तृत जानकारी के लिए संघ के प्रधान पुरस्कार रु. ५१,३१,२१ के हैं। निबन्ध कार्यालय : समता भवन, रामपूरिया मार्ग, भेजने की अन्तिमें तिथि २५ मार्च, ७९ है। बीकानेर-३३४००१ से संपर्क कर सकते हैं।
(संपादकीय : पृष्ठ ४ का शेष) कहीं किसी सभा-कक्ष में कोई पढ़ रहा है, या बोल रहा है, अपना ज्ञान बघार रहा है, तो हम कहेंगे कि वह कोई ऐसा आदमी ही है, जो जबरन पकड़कर लाया गया है, और उससे कहा गया है कि तू नाच; भले ही तू नृत्य-कला को जानता हो या न जानता हो; फिर वह आदमी नृत्य शुरू करता है, ऐसा नृत्य जिसमें से वह अनुपस्थित है, और जिसमें उसे कोई रस नहीं है। हमारी आधी से ज्यादा जिन्दगी ऐसे ही व्यर्थ नृत्योत्सवों से भरी हुई है । वस्तुतः बाल्यावस्था से ही हम विवश होना शुरु कर देते हैं, और अन्तिम साँस तक एक विवशता की जिन्दगी बिताते हैं । ग़लती वस्तुतः मूल से यह है कि हमारे शास्त्र जो कभी जीवन से जुड़े हुए थे आज जीवन से कट गये हैं; मैदान से उनका कोई सरोकार नहीं रहा है; किन्तु श्रीमद्राजचन्द्र या पं. टोडरमलजी के साथ वैसा नहीं था-उनके मैदान और शास्त्र एक ही थे; जो शास्त्र था, वही मैदान था; और जो मैदान था, वही उनका शास्त्र था । वे जो कहते थे, शास्त्र बनता था; और जो शास्त्र बनता था; वही उनके जीवन में से प्रकट होता था। ___ इस तरह आज किताबें हमारी स्वामिनी हैं; उनसे हम हारे हुए हैं; वे हमें जी रही हैं, हम उन्हें जी नहीं रहे हैं। आज जरूरत है इन ग्रन्थों में जान डालने की, उनके युगानुरूप व्याख्यान की, उन्हें मैदान से जोड़ने की । इनकी एक-एक ऋचा को जीवन से जोड़ना आवश्यक है। इसलिए, कृपया, आप जो भी करें, संकल्प लें कि उसे जीवन से जुड़ा हुआ ही करेंगे; और मैदान जीतेंगे, किताब, हारेंगे; आशय, किताब को मैदान से जोड़ेंगे, और उसे एक जीवन्त अस्तित्व बनायेंगे । “समयसार" या "गीता" जो भी हो उसे हम पढ़ें नहीं, जियें; तभी कुछ घटित होगा, अन्यथा किताबें हमें जीतती जाएँगी, और हम मैदान हारते जाएँगे।
तीर्थकर : मार्च ७९/२९
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