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'हँसते-हँसते मृत्युवरण'
इस अंक में 'हँसते-हँसते मृत्युवरण' शीर्षक लेख पढ़ा । लेखक महोदय मानो आत्ममहल में ही विराजमान हैं । आत्मजागृति उनके जीवन का ताना-बाना बन गयी है । मृत्यु - मात्र एक अदना सा ऑपरेशन है । - हरखचन्द्र बोथरा, कलकत्ता हँसी-खुशी की गहरी तस्वीर
विगत अंक में हँसी और खुशी के अंकों की तस्वीरें खींची गयी हैं, उस गहराई में हँसी और रोना समान हो जाता है और ( चर्चा : पृष्ठ
इतनी धुंध और इतना कुहा छाया होता है कि चारों ओर बेड़ियों और सींखचों के सिवा जाल - ही जाल दृष्टिगत होता है । वहीं तपस्या का पर्वत होता है और स्रोतों के अमृत वहीं निर्झरित होते हैं । -डा. लक्ष्मीचन्द्र जैन, जावरा
प्रेरक-अभिनन्दनीय
जीने की कला इस विशेषांक ने बता दी है । लेखकों का मौलिक एवं प्रेरक चिन्तन और संपादकजी की सूझबूझ अभिनन्दनीय है । - मानव मुनि, इन्दौर
१८ का शेष )
शास्त्रों में जो स्मरण किया गया, वह पवित्र चारित्र्य के कारण ही है। हमारा सामान्य जनता पर, अपने पड़ोसियों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ा हुआ था। वैसे तो हम अल्पसंख्यक होते हुए भी बहुत कुछ बातों में अभी भी निष्ठावान हैं। अच्छे सन्दर्भों को लेकर हमने इस देश में पड़ौसियों पर छाप छोड़ी है; फिर भी वर्तमान में जो वातावरण है, उस प्रवाह में तो आदमी कुछ बह ही जाता है । इससे जो कुछ दोष आ गये हैं, वे काल पर आधारित हैं, परिस्थिति पर आधारित हैं । वातावरण दूषित होने से आदमी पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता है ।
मैंने भारत भर में घूमते हुए देखा है कि सामान्य जनता में बहुत अच्छे विचार हैं, चारित्र्य है ग्रामीण जीवन में। शहरों में कुछ चीजों में कमी अवश्य आ गयी है । इतिहास में हम देखते हैं कि तब भी बड़े-बड़े शहरों में ये बातें थीं । मैं ऐसा नहीं समझता कि वातावरण बहुत ही दूषित बन गया है। सारे देश में सामान्य लोगों में अभी भी निष्ठा है और उनका चारित्र्य भी बहुत कुछ अच्छा है; ; परन्तु जैसे कि कुछ घटनाएँ घटती हैं, उनसे सब लोगों की गिनती नहीं करें । यों तो पाण्डवों के युग में, जिसे हम सतयुग कहते हैं, युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी को दाँव पर लगा दिया था, उसमें ऐसी घटनाएं घटती हैं । तो कोई बड़ी आश्चर्य की बात नहीं है ।
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फिर भी हमें ऐसा वातावरण पैदा करना चाहिये, जिससे भावी पीढ़ी हमारा जो पिछला इतिहास है, पवित्र और स्वर्णयुग, उसको याद कर वह अपने जीवन को आदर्श बना सके और पुनरपि हम अपनी प्रतिष्ठा पूर्ण अतीत की स्थापित कर सकें । डॉक्टर : यानी जैनों को बहुत अच्छी भूमिका इस समय निभानी चाहिये । एलाचार्य : निभानी चाहिये और वे निभा सकते हैं। बहुतों की आकांक्षा है, क्योंकि जैनधर्म के कुछ ऐसे सिद्धान्त हैं, जो राष्ट्रधर्म के रूप में प्रचलित हो सकते लोगों को लाभदायक हो सकते हैं । परन्तु जैनों को ही उसका शुभारम्भ करना होगा । महावीर ने शुभारंभ किया था, इसीलिए महावीर का अहिंसा का सिद्धान्त इस विशाल विश्व में आज प्रत्येक व्यक्ति अपनाने के लिए उत्सुक है ।
( जयपुर ; २४ - १ - १९७९; केस्सेट से प्रेमचन्द जैन द्वारा आलेखित )
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तीर्थंकर : मार्च : ७९/३१
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