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________________ हैं-५ हिन्दी में, २० अंग्रेजी में; सब-के-सब स्तरीन हैं और नये अध्ययन-टापुओं की टोह लेते हैं। इन्स्टीट्यूट ने विलम्ब से ही सही किन्तु इन्हें प्रकाश में लाकर उन संगोष्ठी-विवरणों को चुनौती दी है, जो अत्यन्त अशुद्ध, अव्यवस्थित और विशृंखलित होते हैं। वस्तुतः अब वे दिन सामने हैं जब पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश का विश्वविद्यालयीन स्तर पर व्यवस्थित अध्ययन-अध्यापन होना चाहिये, तथा भारतीय भाषाओं और साहित्य के अध्यापक के लिए इन भाषाओं से संबन्धित एक प्रमाणपत्र-परीक्षा अनिवार्य कर देना चाहिये, क्योंकि हमारी मान्यता है कि मध्यकालीन भाषाओं और उनके साहित्य की परिचयात्मक जानकारी के बिना भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य का सम्यक् एवं प्रामाणिक अध्यापन संभव नहीं है। विवरण के आरंभिक पृष्ठों (२९-३१) में, जो संक्षिप्त विवरण और अनुशंसाएँ हैं, वे किसी भी विश्वविद्यालय के लिए इस दिशा में आदर्श हो सकती हैं। इतनी उपयोगी सामग्री के प्रकाशनार्थ संस्थान को बधाई। ___जैन आयुर्वेद साहित्य की परम्परा : डॉ. तेजसिंह गौड़; अर्चना प्रकाशन, छोटा बाजार, उन्हेल (उज्जैन); मूल्य-दस रुपये ; पृष्ठ ११२; क्राउन १/८; १९७८ । 'जैन ज्योतिष साहित्य परम्परा' के उपरान्त विद्वान् लेखक की यह दूसरी उल्लेखनीय कृति है, जिसमें ४० जैनाचार्यों के चिन्तन और रासायनिक विश्लेषणों तथा प्रयोगों का यथासंभव परिचय दिया गया है। यह इस बात की सुबूत है कि जैनाचार्य कोरमकोर दार्शनिक ही नहीं थे वरन् उनका ध्यान स्वस्थ साध्य के साथ ही स्वस्थ साधन की ओर भी था; इसीलिए इन मनीषियों ने तन को स्वस्थ-समर्थ रखने के उपाय पर भी विस्तार से तथा अनुसन्धानपूर्ण विचार किया। समीक्ष्य पुस्तक में डॉ. गौड़ ने उपलब्ध सामग्री का मात्र गहन आलोड़न ही नहीं किया है, अपितु विवरण-वर्णन के स्तर से किंचित् ऊँचे उठ कर तथ्यों की समीक्षा भी की है। उन्होंने बताया है कि जैन विद्या में आयुर्वेद रुचि-धारा लगभग पांचवीं सदी ईस्वी में दक्षिण से आयी। समीक्ष्य कृति में नये-पुराने स्रोतों से दोहित सामग्री के अलावा कुछ ऐसी संभावनाएँ भी विवृत हैं, जिन्हें आधार मानकर इस क्षेत्र में आगे बढ़ा जा सकता है। बावजूद प्रूफ की मामूली त्रुटियों के पुस्तक साफ-सुथरी अतः पठनीय है। -नेमीचन्द जैन ___ जैन प्रार्थनाएँ : संकलन-संपादन : प्रो. कमलकुमार जैन; जैन सेन्टर, ग्रेटर बोस्टन, यू. एस. ए., मूल्य-उल्लेख नहीं; पृष्ठ ४० ; डिमाई-१९७८ । ___ कनाडा और अमेरिका में बसे जैन भाई-बहनों के निमित्त प्रकाशित पुस्तक ऐसी है, जो अन्य देशों में रहनेवाले जैनों के लिए भी प्रेरक, रोचक और उपयोगी सिद्ध हो सकेगी। डॉ. नेमीचन्द जैन के अंग्रेजी में लिखे गये प्राक्कथन और श्री सन्तोष जड़िया द्वारा रेखांकित कलात्मक तीर्थंकर-चिहनों ने पुस्तक को आधुनिक और अभिनव बना दिया है। तीर्थंकर : मार्च ७९/२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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