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________________ टिप्पणी भगवान् महावीर : सेवा आज के संदर्भ में वह ज्वलन्त प्रश्न जो कभी मेरे एक परम आत्मीय ने मुझसे किया था- 'क्या आपके भगवान् महावीर के धर्म में कोई ऐसा सेवा-भाव नहीं है, जैसा कि क्रिश्चियन धर्म में है ?' सुनते ही लगा जैसे किसी ने मेरे समस्त सत्त्व को एकबारगी ही झकझोर डाला हो। क्या महावीर मेरे ही हैं ? मैंने उत्तर दिया--'क्यों नहीं है ? भगवान् महावीर के प्रमुख सिद्धान्त अहिंसा और साम्यभाव सेवा की धुरी पर ही तो घूम रहे हैं । अहिंसा के संरक्षण के लिए वे चार भावनाएँ हैं, जिनमें तीसरी है कारुण्य भावना जो आर्त्त-पीड़ित जनों के लिए ही है।' वे मुस्कुराते हुए बोले- 'तो फिर बतलाइए कुछ ऐसे संस्थानों के नाम और काम ?' मुझे लगा जैसे मेरे पैरों-तले धरती खिसक रही है। कोई उत्तर हो नहीं सूझ पाया । ईसाइयों की सेवा-सा महान आदर्श न मुझे किन्हीं संस्थानों में दीख पाया न किन्हीं अनुष्ठानों में । मैं तुरन्त अतीत की ओर मुड़ी । अकाल-पीड़ितों के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले सेठ जगड़ शाह एवं आदर्श सेवाभावी खेमा देदराणी का उदाहरण उनके सम्मुख प्रस्तुत किया वे बोले उठे – 'यह नियम नहीं है, यह तो नियम का व्यतिक्रम है जो आपको हर समाज में मिल जाएगा'। चुप थी मैं । · पर तभी स्मृति में उभर आया 'वैयावृत्य'; किन्तु बड़ो संकीर्ण लगी मुझे उसकी परिभाषा : 'वृद्ध ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने-बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार और औषध आदि देकर उनका उपकार करना, अशक्त हो तो उनका मल-मूत्र उठाना, सहारा देना आदि-आदि।' (भगवती आराधना, ४०५-६) सोचने लगी । यदि ये सब उन्हें सुनाया तो वे मुझ पर बड़ी करारी चोट करेंगे। सेवा के सम्मुख साधु, क्या कुसाधु क्या ? सेवा होता है प्राणिमात्र के लिए। फिर भगवान महावीर जो अहिंसा की साक्षात् प्रतिमा थे, जिनके लिए न मनुष्यमनुष्य में अन्तर था न पशु-पक्षी और कीट-पतंगों के लिए । कभी नहीं हो सकता उनका वैयावृत्य वाला सिद्धान्त इतना संकीर्ण, इतना सीमित । . तो फिर कहाँ से आ टपका यह सब ? प्रश्नकर्ता ने स्वयं जैन होते हुए भी मुझसे कहा था 'आपके महावीर' । ठीक ही तो कहा था। मैंने · · · हमने महावीर की 'इमेज' ही ग़लत बना ली है। भला उस इमेज के महावीर उनके कैसे हो सकते हैं, जिन्होंने उनका सत्य स्वरूप परखा है, बूझा है । कितना लज्जास्पद है यह कि आज का प्रबुद्ध जैन भी महावीर से दूर होता जा रहा है । क्यों न होगा ? महावीर के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसका जरा भी तो सामंजस्य नहीं होता उससे जो कुछ हम महावीर के नाम पर कहते हैं । एक ओर हम महावीर के आदर्शों का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार चाहते हैं, दूसरी ओर व्यर्थ के क्रियाकाण्डों की दीवार अपने चारों ओर खड़ी कर कूपमण्डूक-सा जीवन-यापन करते हैं। बस, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त तक छलांग भरकर कहते हैं हमारा धर्म सब से बड़ा है। तीर्थंकर : मार्च ७९/२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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