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उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया; किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जैनाचार्यों ने अन्य भाषाओं में साहित्य-सर्जना की ही नहीं । उन्होंने लोकदृष्टि को ध्यान में रखकर प्रदेशानुकूल एवं युगानुकूल भाषाओं में इतने ग्रन्थों का प्रणयन किया कि उपलब्ध विश्वसाहित्य में परिमाण की दृष्टि से उतना प्रचुर साहित्य बहुत कम देशों अथवा सम्प्रदायों का होगा। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तमिल एवं मलयालम में विविध विषयक लक्ष-लक्ष ग्रन्थों का प्रणयन किया गया; किन्तु काल-दोष से साम्प्रदायिक एवं राजनैतिक आँधियों एवं तूफानों में हमारे सहस्रों ग्रन्थ-रत्न नष्टभ्रष्ट हो गये । जो कुछ बचे हैं, उनमें से अभी तक सम्भवतः ५ प्रतिशत ग्रन्थों का ही प्रकाशन हो सका है और बाकी के ग्रन्थ हस्तप्रतियों के रूप में अभी प्राच्य ग्रन्थागारों में ही छिपे पड़े हैं और अंधेरे में अपने दुर्भाग्य को कोस रहे हैं।
प्राकृत भाषा प्राचीनतम लोकभाषा अथवा राष्ट्रभाषा थी, इसे भाषा-वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है तथा उनके निष्कर्षों के अनुसार आधुनिक बोलियों का उसी से विकास हुआ है। इस कारण भारतीय विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में उसे अनिवार्य रूप से स्थान मिलना चाहिये ; किन्तु कुछ लोग प्राकृत को जैनियों की भाषा तथा जैनों के साहित्य को मात्र साम्प्रदायिक साहित्य मानकर चलते हैं। यदि प्राकृत भाषा जैनियों की है और प्राकृत साहित्य साम्प्रदायिक है तब बाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, अष्टादशपुराण, कालिदास एवं भवभूतिकृत संस्कृत-साहित्य एवं तुलसी, सूर मीरा एवं विद्यापतिकृत साहित्य क्या है? क्या उसे एक वर्ण-विशेष की भाषा या साहित्य मानकर तथा उसे साम्प्रदायिक साहित्य घोषित कर उसकी उपेक्षा कर दें ? नहीं यह हमारी भूल होगी। वस्तुतः भाषा तो विचारों के व्यक्त करने का साधन है उस पर किसी जाति या धर्म-विशेष का अधिकार नहीं होता। इसी प्रकार साहित्य हमारी चिन्तन-प्रक्रिया सजनशील वृत्ति एवं कल्पनाशक्ति का प्रतिफल है; अतः वह राष्ट्र के प्रति समर्पित एक विशेष अंग का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसी स्थिति में उसकी उपेक्षा एक विशिष्ट राष्ट्रीय अंग की उपेक्षा होगी तथा पठन-पाठन से दूर रखना बड़ी भारी भूल होगी। जैन विद्वानों एवं जैन समाज को भी इस तथ्य पर गम्भीर विचार करने की आवश्यकता है। उसे इस दिशा में ऐसा प्रयास करना चाहिये कि केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारों द्वारा चालित प्रतियोगिता-परीक्षाओं तथा विश्वविद्यालयों के इस विविध पाठ्यक्रमों में जैन संस्कृत एवं प्राकृत-साहित्य को भी उपयुक्त स्थान मिल सके।
. गणेशप्रसादजी वर्णी (वि. सं. १९३१-२०१८) ने पं. मोतीलाल नेहरू के सहयोग से सर्वप्रथम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित संस्कृत महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में जैन ग्रन्थों को स्वीकृत कराया। उसके बाद शान्तिनिकेतन, कलकत्ता; पूना, पटना, बड़ौदा के विश्वविद्यालयों में आंशिक रूप से तथा नागपुर वि. वि. में पूर्ण रूप से प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैन साहित्य के पठन-पाठन की व्यवस्थाएँ की गयीं। (क्रमशः)
तीर्थंकर : मार्च ७९/२२
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