SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभृति संस्कृत कविताएँ सरस, मार्मिक एवं ज्ञेय होने के कारण बड़ी लोकप्रिय रही हैं। आपकी कार्य-क्षमता, जिनवाणी-सेवा एवं समाज-सेवा से प्रभावित होकर मध्यप्रदेश शासन, भारत सरकार, विद्वत्परिषद् एवं अन्य अनेक स्थानीय संस्थाओं ने आपका सार्वजनिक सम्मान किया है। पिछले लगभग २३ वर्षों से आप अ. भा. दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के महामन्त्री के रूप में कार्य करते चले आ रहे हैं। __पं. अमृतलालजी शास्त्री (बमराना, उ. प्र. १९१९ ई.) उन विद्वानों में से हैं जिनके व्यक्तित्व को विपत्तियों ने वरदान बन कर सँवारा-सजाया । वे विघ्नबाधाओं को सदा ही गुरु का दण्ड मानकर अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के प्रति जागरूक एवं सतत् अध्यवसायी बने रहे। पं. अमृतलालजी का संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार है। वे संस्कृत के आशुकवि हैं। उनके प्रियतम ग्रन्थ चन्द्रप्रभचरित, धर्मशर्माभ्युदयकाव्य, पार्वाभ्युदयकाव्य एवं गद्यचिन्तामणि रहे हैं। यदि वे चाहें तो कुमारसम्भव एवं मेघदूत की कोटि की रचनाएँ स्वयं लिख सकते हैं। फिर भी वे अत्यन्त निरभिमानी, सरल, उदार, कष्टसहिष्णु एवं स्वाभिमानी विद्वान् हैं। जैनसमाज को चाहिये कि जैन साहित्य की उद्धार-सम्बन्धी कोई योजना बनाकर उनकी दैवी प्रतिभा का सदुपयोग करे। _____पं. मूलचन्द्रजी शास्त्री के विषय में पूर्व में चर्चा हो चुकी है। उन्होंने हरिभद्रसूरिकृत षोडशकप्रकरण की १५००० श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका तथा विजयहर्षसूरि प्रबन्ध पर ४५० श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका लिखी है। इनके मौलिक संस्कृत काव्यों में लोंकाशाह महाकाव्य, एवं वचनदूतम् प्रमुख हैं। ____ डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का परिचय पूर्व में दिया जा चुका है। उन्होंने संस्कृतभाषा में 'गीतिकाव्यानुचिन्तनम्' लिखकर संस्कृत के जैन गीतिकाव्यों का सर्वप्रथम मूल्यांकन किया है जिससे एतद्विषयक शोध के अनेक द्वार खुल गये हैं। अन्य रचनाओं में डॉ. शास्त्री का अलंकार-चिन्तामणि है, जिसके मूल लेखक अजितसेन हैं। यह ग्रन्थ अभी तक म्ल रूप में ही प्रकाशित था। डॉ. शास्त्री ने उसका अनुवाद एवं विस्तृत समीक्षाकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। डॉ. राजकुमार जैन (गुंदरापुर झांसी, १९१७ ई.) ने जैन साहित्य की अमूल्य सेवाएँ की हैं। आपने सर्वप्रथम पाश्र्वाभ्युदय काव्य का हिन्दी गद्य एवं पद्यानुवाद किया। इसी प्रकार बहत्कथाकोश का भी हिन्दी-अनुवाद किया। अन्य सम्पादित ग्रन्थों में मदन-पराजय एवं प्रशमरति प्रकरण हैं। प्राकृत-माश एवं जन विद्या के क्षेत्र में श्रमण संस्कृति की मूल भाषा प्राकृत मानी गयी है। इसका मूल कारण यह था कि वह प्राच्यकालीन सर्वमान्य लोकभाषा थी और तीर्थंकरों एवं उनके अनुयायी आचार्यों ने सर्वप्राणिहिताय सर्वप्राणिसुखाय सर्वत्र प्रचलित एवं सर्वसुगम लोकभाषा में ही अपने तीर्थंकर : मार्च ७९/२१ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy