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________________ सदी), शान्तिनाथ चरित (सकलकीर्ति, १५ वीं सदी), नेमिनिर्वाण काव्य (वाग्भट, १२ वीं सदी), पार्श्वनाथचरित (वादिराज, १०२५ ई.), वर्धमान चरित (असग, ९८८ ई.), दूतकाव्यों एवं रस-अलंकार साहित्य में-पार्वाभ्युदय (जिनसेन, ९वीं सदी) एवं नेमिदूतकाव्य (विक्रम), अलंकार चिन्तामणि (अजितसेन, १५ वीं सदी ई.); व्याकरण-साहित्य-जैनेन्द्र व्याकरण (देवनन्दि पूज्यपाद, ५-६ वीं सदी), शब्दानुशासन (शाकटायन, ८१४-८६८ ई.), कातन्त्र व्याकरण (सर्ववर्मा, समय अज्ञात), कोशसाहित्य-नाममाला एवं अनेकार्थ नाममाला (धनञ्जय, ७८०-८१६ के मध्य), उपन्यास-साहित्य - गद्यचिन्तामणि (वादीभसिंहसूरि), कथा-साहित्य-कथाकोश (हरिषेण, ९३१ ई.), कथाकोश (प्रभाचन्द्र, १३ वीं सदी), आराधना कथाकोश (नेमिदत्त १६ वीं सदी), पुण्याश्रवकयाकोश (रामचन्द्र मुमुक्षु ) एवं सम्यक्त्व कौमुदी (शुभचन्द्र, वि. सं. १६८०)। नाटक-साहित्य - विक्रान्त कौरव, सुभद्रा-परिणय, मथिली कल्याण एवं अंजना-पवनंजय (हस्तिमल १३वीं सदी)। मक्तक काव्य-सुभाषित रत्नसंदोह (अमितगति १०-११ वीं सदी), आत्मानुशासन (गुणभद्र, ९वीं सदी) एवं ज्ञानार्गव (शुभचन्द्र, ११वीं सदी) ; पंचस्तोत्र-संग्रह आदि । वर्तमान यग के दि. जैन विद्वानों ने इस क्षेत्र में अपनी चमत्कारी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। सन् १९१६ के आसपास पं. गजाधरलालजी शास्त्री ने हरिवंशपुराण एवं अन्य कुछ ग्रन्थों के सर्वप्रथम हिन्दी-अनुवाद किये थे जो प्रवाहपूर्ण एवं प्रामाणिक थे किन्तु अनुवाद के साथ मूलभाग संयुक्त न रहने से शोधार्थियों को बड़ी कठिनाई होती थी। अन्य अनेक ग्रन्थों के भी हिन्दी एवं मराठी अनुवाद प्रकाशित हुए तथा उनके कारण समाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति भी बढ़ी; किन्तु अधिकांश के अनुवाद प्रामाणिक न होने तथा उनके साथ भी मलभाग न रहने से शोध की दृष्टि से वे ग्रन्थ विद्वज्जगत् में अनुपयोगी सिद्ध हुए । शोध-जगत डॉ. पं. पन्नालालजी वसन्त (पारगुआँ, सागर, १९११ ई.) का सदा आभारी रहेगा, जिन्होंने दि. जैन पुराण एवं काव्य-साहित्य का अधुनातन दष्टि से सम्पादन, अनुवाद किया एवं उनकी समीक्षात्मक प्रस्तावनाएँ लिखीं। उनके इस प्रकार के ग्रन्थों में (१) हरिवंशपुराण (जिनसेन), (२) पद्मपुराण, (रविषेण), भाग १-३, (३) महापुराण, भाग १-२ (जिनसेन) (४) उतरपुराण, (गुणभद्र), (५) धन्यकुमार चरित (सकलकीत्ति), (६) जीवन्धर चम्पू (हरिचन्द्र), (७) गद्य-चिन्तामणि (हरिचन्द्र), (८) धर्मशर्माभ्युदय (हरिचन्द), (९) पुरुदेव चम्पू (अर्हद्दास), (१०) विक्रान्तकौरव (हस्तिमल्ल, १३ वीं सदी) प्रमुख हैं। पं. पन्नालालजी की काव्य-प्रतिभा ने जैन विद्या एवं जैन समाज दोनों को ही (अपनी कृतियों के माध्यम से) गौरव के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया है। एक ओर वे कुशल सम्पादक एवं समीक्षक हैं, तो दूसरी ओर वे संस्कृत के कवि भी। संस्कृत के विविध छन्दों में वे धाराप्रवाह काव्य-रचना करते रहे हैं, जिनमें से गणेशाष्टकम् एवं पेटपूजा तीर्थकर : मार्च ७९/२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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