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सबसे अधिक प्रतीक्षित बेला होती है । वह घड़ी जब कोई गुरु अपने ही शिष्य को अपने से बड़ा बना कर गौरवान्वित होता है । उस घड़ी का आनन्द या तो गुरु को मिलता है या माता को ।
आचार्य ज्ञानसागरजी ने आचार्य पद अपने इस सुयोग्य शिष्य को सौंप कर उस दिन स्वतः अपने इस नवाभिषिक्त आचार्य की प्रथम वन्दना करके विनय और मार्दव का एक अनुपम उदाहरण समाज के समक्ष प्रस्तुत किया ।
इस प्रकार 'विद्याधर' से ' विद्यासागर' और फिर 'आचार्य विद्यासागर' बन कर इस महान् आत्मा ने ज्ञान, ध्यान और तप की जिस त्रिवेणी में अपनेआपको सराबोर किया उसका अमृत जन-जन को पान कराते अत्यन्त निरपेक्ष भाव से उनका विहार हो रहा है। उनकी जीवन-पद्धति पूर्णतः निराडम्बर और सादगीपूर्ण है। संघ में किसी को ब्रह्मचर्य का व्रत देना हो या ऐलक दीक्षा, केशलुंच हो या विहार, हर कार्य बिना प्रचार के, बिना दिखावे के, अत्यन्त शास्त्रोक्त पद्धति से वे करते हैं । समीपवर्ती श्रावकों को भी बाद में ही इस सब कार्यकलाप की सूचना हो पाती है ।
आज एक ओर जहाँ साधु-मार्ग भी हमारी आडम्बर- प्रियता में डूब गया है, वैराग्य भी जहाँ महोत्सवों का मुखापेक्षी है, केश - लुंच भी जहाँ पूर्व-प्रचारित और जनाकुल शामियाने में शोभा पाते हैं, दीक्षाएँ भी जहाँ पोस्टर चिपका कर और पर्चे बँटवाकर भीड़-धर्मा ढंग से ली और दी जा रही हैं, वहाँ आचार्य विद्यासागरजी की निर्दोष साधना साधु-मार्ग के अकम्प दीपक की तरह प्रज्वलित है । इतना ही कठोर है अपनी शिष्य - मण्डली पर उनका अनुशासन । उनके बटुक शिष्य भी अपनी लगन, विनम्रता और ज्ञान-भक्ति द्वारा यही आश्वस्त करते हैं कि उनमें भी भविष्य के विद्यासागर हैं ।
इन विशेषताओं के ही कारण, आज दो वर्ष से बुन्देलखण्ड में आचार्य विद्यासागर के दर्शनार्थी भक्तों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है । कानों-कान उनकी कीर्ति देश के कोने-कोने तक व्यापती जा रही है सामान्य भक्त हो या साधक, विद्वान् हो या व्यापारी, मुमुक्षु हो या त्यागी, जो एक बार उनके प्रभावक व्यक्तित्व की छवि निहार पाता है, वह सदा के लिए उनका भक्त हो जाता है । जो एक बार स्याद्वाद-सम्मत उनकी “विविध नय- कल्लोल विमला" वाणी का अमृत चख पाता है, वह बार-बार उसके आस्वादन का आकांक्षी बन कर उनके चरणों में मस्तक झुका देता है ।
हम गौरवान्वित हैं कि 'आचरण में अहिंसा, वाणी में स्याद्वाद और विचारों में अनेकान्त' ही जिसका जीवन - सिद्धान्त हो ऐसे साधु इस कलिकाल में भी एकदम असंभव नहीं हैं । ऐसी साधना का एक उत्तम उदाहरण हमारे भाग्य से हमारे पड़ोस में ही विराजमान है, जिसका प्रातःस्मरणीय शुभ नाम है आचार्य विद्यासागर |
तीर्थंकर : नव- दिस. ७८
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