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डॉक्टर : बालक की निश्छलता, इसकी निष्कपटता के कारण।
एलाचार्य : परन्तु बालक में सर्वथा निष्कपटता होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे भी बड़े चालाक होते हैं। इसलिए बालक का एक सामान्य दृष्टान्त रूप में ले लिया, परन्तु सिद्धान्ततः हम देखते हैं कि बालबुद्धि भी खतरनाक हो सकती है। बालक की सरलता-सहजता के जो अच्छे-अच्छे गुण हैं, वे भी होने चाहिये। जब बच्चा मिट्टी में खेलता है, तो उसके मन में राजा-रंक का कोई भेद नहीं होता।
डॉक्टर : राग-द्वेष बहत कम होता है।
एलाचार्य : हाँ। बड़े लोगों के संस्कार से वह भेदभाव और राग-द्वेष करने लगता है कि जैसे यह अमुक जातिवाला है, वह अमुकवाला है; इसलिए यह सत्य है कि वीतरागता की प्राप्ति के लिए बालक में भी गुण हैं। ‘पंचास्तिकाय' के शुरुआत में मंगलाचरण के बाद ब्र. सीतलप्रसादजी ने चार-पाँच गाथाएँ कहीं से उद्धृत की हैं, उनमें उन्होंने कहा है कि बालक भी भगवान् के समान होता है। कुमारी कन्या भी भगवान् के समान होती है। इसी तरह जो शासक होता है, प्रजापालन तथा परिपूर्ण धर्मपालन के कारण वह भी भगवान्-तुल्य होता है। इन सब बातों में यही है कि समताभाव इस विशाल विश्व में जब मनुष्यों में आ जाता है, तो फिर आप उसे बालक नाम दे दीजिये, यथाजात नाम दे दीजिये या वीतरागता नाम दे दीजिये। समताभाव के मूल में सारी चीजें अवलम्बित हैं। युग-संदर्भ में जैनों की भूमिका और विकास
डॉक्टर : आपने सारे देश में हिमालय से लेकर काफी दूर तक भ्रमण किया है और अब दक्षिण भारत की यात्रा करने जा रहे हैं। आपको यह अनुभव हुआ होगा कि जैन संख्या में तो बहुत कम हैं, लेकिन चारों तरफ फैले हैं, उन्होंने बहुत अच्छे-अच्छे काम भी किये हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी लगता है कि अभी और भी युग-सन्दर्भो को देखकर जैनों को अपने चरित्र का बहुत अधिक विकास करना चाहिये । ऐसी कौन-सी सामाजिक स्थितियाँ हैं, जिनके कारण वे अपने चरित्र में और सुधार कर सकते हैं, सदाचार इत्यादि में ?
___एलाचार्य : जब हम अपने अतीत के इतिहास को देखते हैं, तो वास्तव में हमारे पूर्वजों ने साहित्यिक क्षेत्र में, कला के क्षेत्र में, सामाजिक क्षेत्र में, सच्चरित्रता के क्षेत्र में भी बहुत ऊँचा नाम कमाया। मैं 'जपुजी' (एक छोटी-सी गुटिका) पढ़ रहा था।
डॉक्टर : अच्छा; नानकजी की।
एलाचार्य : हाँ, उसमें एक स्थान पर लिखा है कि श्रावक बड़े आचरणशील होते हैं और सिद्धों की पूजा करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हमारा अन्य
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तीर्थकर : मार्च ७९/१८
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