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कठिनाई होगी। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि जैनधर्म में ऐसी कौन-कौन-सी बातें हैं, जो बच्चों में हम आरंभ से बीज-रूप में डाल सकते हैं ?
एलाचार्य : यद्यपि भारतीय साहित्य में और विशेषकर संस्कृत में 'सुपुत्रो कुलदीपक:' माना गया है यानी सुपुत्र जो है वह कुलदीपक है। इसलिए इस बाल वर्ष को जो इतने विशाल रूप से मनाया जा रहा है, वह एक-एक घर से शुरु होना चाहिये; क्योंकि माता-पिता यदि सुसंस्कार-संपन्न हों, सुशिक्षित हों और वे नागरिक के अच्छे गुणों को जानते हों या स्वयं परिपालन कर रहे हों, तो वे बच्चों को आदर्श बना सकते हैं, संस्कार दे सकते हैं और वह घर से ही शुरु हो जाना चाहिये तभी हम विशाल विश्व के अन्दर इसको सफलता के रूप में देख सकते हैं; क्योंकि प्रत्येक घर की अपनी परिपाटी है, अपनी रुचियाँ हैं। व्यापक रूप से बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा रहे, वे परस्पर प्यार करना सीखें। अपने आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को लिये हुए इस विशाल विश्व में हम किसी पर पदार्थ पर इतना बड़ा स्वामित्व स्थापित न करें, जिससे हमारा जीवन ही खतरे में पड़ जाए या हम समाप्त हो जाएँ; इसलिए व्यापक रूप में ऐसा वातावरण तैयार किया जा सकता है जिसमें भावी पीढ़ी सुखी हो और उसे ऐसा मार्ग मिले जिस पर चलकर युगों तक मानव हिंसा से और परस्पर की आपत्तिजनक बातों से मुक्त हो और उनमें वैचारिक क्रान्ति आये, जिससे मानव-मात्र को आत्मशान्ति प्राप्त हो, यह एक दृष्टि हो सकती है, उसके उपाय और साधन अलग हो सकते हैं; परन्तु साधन और उपाय तो हर घर की परिपाटी के अनुसार होंगे, साथ में जो संस्कार होते हैं, उनको अलग करना बहुत मुश्किल है। शिशु और मुनि को उपमा : कहाँ तक संगत, कहाँ तक असंगत
डॉक्टर : कुन्दकुन्दाचार्य ने तो अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष पहले ही मना लिया। चूंकि उन्होंने अपनी गाथा में कहीं कहा है, दिगम्बर मुनि एक 'सद्यःजात शिशु' की तरह होता है। क्या आपको ऐसा स्मरण आता है ? क्या आप कृपया इसका विश्लेषण करेंगे कि एक दिगम्बर मुनि की बालक की भूमिका में कैसे परिकल्पना की जाती है ? बालक और मुनि में वे कौन-से गुण हैं, जो दोनों को समान बना देते हैं ?
एलाचार्य : जैनशास्त्रों में सद्यःजात शिशु-जैसा व्यावहारिक रूप में तो कहा गया, परन्तु उसको जब हम गहराई से सोचेंगे, तो विवेक और विवेक-संपन्नता प्रौढ़ता से ही आ सकती है और यह भेदविज्ञान से ही संभव है। जैसे दर्पण में अनेक चीजें झलकती हैं, किन्तु दर्पण से उसका कोई संबन्ध नहीं रहता है, इसी प्रकार विवेक और परमविवेक संपन्न बनना है, तो परिपक्व ज्ञान होना आवश्यक है। बहिरंग में दृष्टान्त के रूप में इस बालक को कुन्दकुन्द और अन्य आचार्यों ने दिगम्बर मुनि से उपमा दी है।
तीर्थंकर : मार्च ७९/१७
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