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________________ जब आत्मा में वह चिन्तन करता है, समस्त पदार्थों से थोड़ी देर के लिए मुक्त हो जाता है, तो उसकी दष्टि अनन्त विकल्पों से हट कर एक आत्मा पर स्थिर हो जाती है, तो वही भेदविज्ञान के लिए कारण बन जाती है। भेदविज्ञान को जानना जितना सरल है, उतना ही एकाग्रता से और अपने अन्दर अनुभव करते हुए उसे उसे प्राप्त करना सरल नहीं है। भेदविज्ञान और ट्रस्टीशिप-सिद्धान्त : एकरूपता डॉक्टर : कठिन बात है। मैंने एक लेख लिखा था, उसमें गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धान्त को भेदविज्ञान से जोड़ने का प्रयत्न किया था । ट्रस्टीशिप सिद्धान्त में व्यक्ति की सम्पत्ति तो होती है, लेकिन वह 'डिसऑन' कर देता है, उस पर से अपना स्वामित्व हटा लेता है। भेदविज्ञान में भी हम आत्मा का स्वामित्व शरीर पर नहीं मानते हैं, उसे हम 'डिसऑन' करते हैं, अलग हटाते हैं। तो आप क्या सोचते हैं कि ट्रस्टीशिप जैसा सिद्धान्त. भेदविज्ञान से कहीं मेल खाता है ? एलाचार्य : बात यह है, जब शरीर भी हमारा नहीं मानकर भेदविज्ञान से हटा दिया, तो अनन्त पदार्थों पर हम अपना स्वामित्व कैसे मन में रख सकते हैं ? इसलिए वह अपने-आपमें ट्रस्टीशिप ही है। इतना ही नहीं, अन्य पदार्थों की तो बात ही छोड़ दीजिये। कुन्दकुन्द ने कहा, हे मुनि ! हे तपस्वी !! इस शरीर से तुझे काम लेना है, इसलिए इसे थोड़ा-सा खर्च के रूप में या तनख्वाह के रूप में उसे भोजन देना है, अन्यथा इस शरीर से तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्य पदार्थों से तो ट्रस्टीशिप है ही। कोई संशय नहीं व्यावहारिक रूप में और निश्चय रूप में तो अपने शरीर को भी परिग्रह माना है, तो अन्य पदार्थों की बात ही क्या है ? इसलिए व्यावहारिक रूप में इस दुनिया में ट्रस्टीशिप शब्द बहुत सुन्दर है। इसके परिपालन के बाद दुनिया के जितने भी विवाद हैं वे अपने आप--स्वयमेव समाप्त हो सकते हैं। ___डॉक्टर : जो भेदविज्ञानी होगा वह अपरिग्रही तो अपने आप ही हो गया। उसके लिए परिग्रह का प्रश्न ही नहीं है। जब शरीर ही उसके लिए परिग्रह है, तो शेष सारे पदार्थ परिग्रह हैं ही। इसलिए ट्रस्टीशिप सिद्धान्त और भेदविज्ञान में से जिस अपरिग्रह का जन्म होता है, वह बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता है। ___एलाचार्य : सही है। अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष : शुभारंभ घर से हो _ डॉक्टर : मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि सारे हिन्दुस्तान में ही नहीं, अन्य देशों में अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष मनाया जा रहा है। जैनों को भी इसे किसीन-किसी रूप में संपन्न करना चाहिये और बालकों में एक संस्कार उत्पन्न करना चाहिये। चूंकि वह हमारी ऐसी पीढ़ी है जो अगर बन नहीं पायेगी, तो बड़ी तीर्थंकर : मार्च ७९/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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