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________________ एक पारिभाषिक शब्द है। इस पर भी बहुत सरल शब्दों में प्रकाश डालने की कृपा कीजिये। एलाचार्य : भेदविज्ञान की जैनशास्त्रों में विविध रूपों में चर्चा है। वह अत्यन्त सरल भी है और गढ़ भी है। सरल मैं इसलिए कह रहा हूँ कि अल्पज्ञानी निर्मोही मोक्षमार्ग पर है। हमारे यहाँ मोहरहित ज्ञान को ही श्रेष्ठ माना है और वही मुक्ति का कारण माना गया है। भेदविज्ञान के लिए द्रव्यश्रुत बहुत छोटा-सा है। जैसे अग्नि की चिनगी छोटी होती है न, परन्तु वह तो विशाल वन को भस्म करती है। इसी तरह पं. टोडरमलजी ने लिखा है, कुन्दकुन्दाचार्य ने भी लिखा है : 'तुसमासंघोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो' । 'तुषमाष' - (दाल अलग और छिलका अलग)-इस छोटे-से द्रव्यश्रुत को लेकर और भावविशुद्धि के कारण अनन्त भावश्रुत से उसने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। यही बात दोहराते हुए डोडरमलजी कहते हैं कि शिवभूति की स्थिति भी यही है। ‘तुषमाष' शब्द सिद्धान्त नहीं है, परन्तु आपा-पर भेदविज्ञान से उक्त विज्ञानी ( शिवभूति ) हो गया। वह जीव, अजीव, द्रव्य, गुण, पर्याय इत्यादि कुछ भी नहीं जानता था; परन्तु आत्मा और शरीर अलग - इस भेदविज्ञान को रटते-रटते और भावश्रुत में परिवर्तित करके वह भेदविज्ञानी हो गया। डॉक्टर : यानी भेदविज्ञान में कुछ चीजों को अलग-अलग करना होता है। वह आत्मा और पुदगल को अलग करने का विज्ञान है। एलाचार्य : जीव अन्य है, पुदगल अन्य है। इसलिए कुन्दकुन्द ने 'नियमसार' में साधना-रूप में बताया है मैं सूत्र बताकर उस पर अपने विचार प्रकट करूँगा। वे कहते हैं : 'केवलसत्ति सहावो सोहं इदि चितए णाणी' यानी ज्ञानी पुरुष कौन है-- 'सोऽहं'। उस परमात्मा के समान ही मेरा आत्मा भी है - ऐसा जो चिन्तन करता है, अनुभव करता है, वही ज्ञानी है। डॉक्टर : बहुत अच्छा। एलाचार्य : 'जाणदि पस्सदि' - वह जानता है और देखता है। उपयोग में आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा-मात्र है। ऐसे जो कोई भी अनुभव-चिन्तन प्रत्यक्ष रूप से करने लगता है, वह ज्ञानी है। इसलिए कुन्दकुन्द ने एक बात कही : 'सोहं इदि चितिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभावे' - उस परमात्मा के निराकार-निरंजन रूप चैतन्य आत्मा के समान मेरा आत्मा है। वह समस्त पृथ्वी-मण्डल के पदार्थों से स्वतन्त्र सत्ता लिये हुए है और द्रव्यगुण-पर्याय सहित मेरा आत्मा है; क्योंकि हमारे यहाँ आत्मा को कूटस्थ नहीं माना है और कोई पदार्थ को भी कूटस्थ नहीं माना है। इसलिए और शाश्वत, ध्रुव होते हुए भी मेरा आत्मा परिणमनशील है और उसके द्रव्य गुण सारे ही शुद्ध हैं। मैं द्रव्यदृष्टि से परमविशुद्ध हैं। इस तरह से तीर्थकर : मार्च ७९/१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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