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चर्चा / एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी से
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जैनधर्म : सरलतम शब्दों में भेदविज्ञान : अत्यन्त सरल अत्यन्त गूढ़ भेदविज्ञान और ट्रस्टीशिपसिद्धान्त : एकरूपता अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष शुभारंभ घर से हो शिशु और मुनि की उपमा : कहाँ तक संगत, कहाँ तक असंगतयुग संदर्भ में जैनों की भूमिका और विकास ।
जैनधर्म : सरलतम शब्दों में
डॉ. नेमीचन्द जैन : आप हमारी वर्तमान पीढ़ी में हैं और इस समय अध्यात्म विद्या के बहुत बड़े केन्द्र हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यदि किसी को जैनधर्म को कम-से-कम शब्दों में और सरल-से-सरल शब्दों में सामने रखना पड़े तो कैसे रखेंगे ?
एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्द : जैनधर्म को यदि किसी के सामने सरल-से-सरल भाषा में रखना हो, आचार्यों ने इसे बहुत ही सुलभ और सरल रीति से बताया है। प्रारंभिक अवस्था में आत्मा को समस्त पदार्थों से पृथक् समझें । स्वतन्त्र सत्ता के रूप में कि आत्मा शाश्वत है और संसार के बाकी सब पदार्थ संयोग मात्र हैं । उन संयोग मात्र पदार्थों को इस जीव ने आसक्ति से, राग से अपना रखा है और यह उन पर पदार्थों में रमण कर रहा है, इसके कारण यह दुःखी है । राग दुःख का एक बहुत बड़ा कारण है । मैं मोटे तौर से यह दृष्टान्त दे दूँ, सोने के मृग को देखकर सीता को राग हुआ, राम को राग हुआ और सीता को देखकर रावण को राग हुआ, इसलिए सारे ही दुःख में फँस गये । राग एक आग के समान है । राग के पीछे जो वीतराग भाव रखता है वह किसी भी छोटे-से-छोटे पदार्थ में फँसकर अपने को दुःखी बना कर इस अणु संसार में भ्रमण नहीं करता है । इसलिए भेदविज्ञान के प्रारम्भ में यह समझ कर कि राग आग के समान है, यह दुःख के लिए कारण है, शनैः शनैः इस पर विजय पाने की कोशिश करना है । आत्मा का यह धर्म है और महावीर का यही उपदेश है ।
भेदविज्ञान : अत्यन्त सरल, अत्यन्त गूढ़
डॉक्टर : आपने अभी भेदविज्ञान शब्द काम में लिया, यह तो जैनधर्म का
तीर्थंकर : मार्च ७९/१४
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