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लाभ नहीं होगा; बल्कि नवीन जीवन में पुनः इसी दुर्वह वेदना को वहन करना पड़ेगा। तुम्हारी इस विडम्बना के पीछे है पूर्वजन्म कृत कोई अशुभ कर्म ; अतः धैर्य धारण कर धर्म-जागरणा में उसे क्षय करने की कोशिश करो, जिससे तुम्हारा नवीन जीवन शुभ बने, श्रेय बने।'
पिता की बातों से कुछ आश्वासन मिला सुकुमारिका को। बोली-'पिताजी, तब मैं साध्वी-धर्म ग्रहण करूँगी।
दीर्घ निःश्वास निकल पड़ा सागरदत्त के वक्षस्थल से। बोले-'बेटी, जैसी तुम्हारी अभिरुचि'।
आर्यिका गोपालिका से साध्वी-धर्म ग्रहण कर लिया सुकुमारिका ने। वह स्वयं को भूल जाना चाहती थी धर्म-जागरणा में, उपवास की कृच्छता में, परिषहभार वहन करने की तितिक्षा में; किन्तु भूल न सकी-ओष्ठाधरों के निपीड़न की प्रथम यौवन की उस अभीप्सा को .घन सन्नद्ध आलिंगन के उस स्वप्न को। वह अनुभव कर रही थी उसके हृदय के मरु-अन्धकार की गंभीरता में निर्वासित प्राणों के पद्मकोरक उसी भाँति आज भी प्रस्फुटित हैं, विरुद्ध वायु के ताप से शुष्क होकर वे अभी झरे नहीं हैं।
उसने स्वयं को डुबो देना चाहा और-और अधिक धर्म-जागरणा में, अतः निष्ठुर हो उठी वह स्वयं के प्रति ।
. . . किन्तु, शत-शत कृच्छ साधनाओं के बावजूद भी वह उठ न सकी भोग-वासनाओं से ऊपरं। उसके मन की भावनाएँ हेमन्ती कुहेलिका की भाँति जैसे
और मायावी हो उठी थीं। वह मुक्ति का स्वप्न देख रही थी। वह मुक्ति लोकाकाश के ऊर्ध्व पर स्थित इष्ट प्राग्भार वाली मुक्ति नहीं, उस रुक्ष शुष्क विशीर्ण वंचित जीवन से मुक्ति। वह था एक भोगमय जगत् जहाँ दिवस-यामिनी का हर पल नृत्य-गीत और रभस् में विह वल बना रहता है। पुलकांचित वन-हिरणी की भाँति चकित हर्ष में सुकुमारिका के निविड़ नयनों की दृष्टि क्षण प्रगल्भता में जैसे तरलित हो उठतीं।
___ अपने जीवन को और कठोर कर लिया और कृच्छ बना लिया दिनचर्या को सुकुमारिका ने, अन्ततः आर्या गोपलिका के निकट जाकर बोली-'मुझे आज्ञा दीजिये सुभूमिभाग उद्यान में सूर्यातपना करने की।'
आदेश नहीं मिला । आर्या गोपालिका ने निषेध किया – 'साध्वियों को उन्मुक्त स्थान में सूर्य-आतापना नहीं करनी चाहिये।
'क्यों नहीं करनी चाहिये ?' – प्रश्न जाग उठा सुकुमारिका के अन्तर में। इस निषेध से उसका हृदय खिन्न हो उठा। जब वह गृहस्थाश्रम में थी तब तो ये आर्यिकाएँ उसकी इच्छाओं का इस प्रकार निरादर नहीं करती थीं। · · ·आज क्यों
तीर्थंकर : मार्च ७९/१२
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