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से, आभरणों से, अंगराग से सुसज्जित होकर उस दिन सप्तपदी के अन्त में श्रेष्ठिपुत्र सगर के साथ मधुचन्द्रिका यापन करने के लिए उसका केलिगृह में प्रवेश । वैशाखी पूर्णिमा के द्वितीय प्रहर में पूर्णेन्दु-शोभित आकाश से कुन्द-धवल कौमुदीधारा आ-आकर लौट रही थी उसकी शैय्या पर। उसी शान्त ज्योत्स्ना-लोक में एक ममता-मथित सुस्मित दृष्टि किये उसके मुख की ओर देख रहा था उसका प्रेमास्पद । जबकि उल्लासलील आवेग में थर-थर काँप रही थी उसकी देह। मानो उसका समस्त जीव, यौवन एक परम सार्थकता में पर्यवसित हो रहा था। वह अनुभव कर रही थी दो बलिष्ठ बाहुओं के प्रतिक्षण बढ़ते दबाव को, उष्ण निःश्वासों की सुरभि को लगता था इतनी मादकता तो किसी पुष्प-सुवास में भी नहीं होती। · · किन्तु पर मुहूर्त में ही 'ज्वाला-ज्वाला' चिल्लाते हुए उसने उसे दूर धकेल दिया था। तो क्या वह विषकन्या है, जिसके स्पर्श ने उसके प्रेमास्पद की देह में ज्वाला उत्पन्न कर दी? सगर ने उसी रात्रि में उस वासरगृह का ही परित्याग नहीं किया, परित्याग कर चला गया था चम्पकनगरी को भी और आज तक यह पता ही न चल सका कि वह कहाँ है ? उसके इस दुर्भाग्य को, दुर्भर यौवन-भार को वह कैसे वहन कर सकेगी?
पिता सागरदत्त की दुश्चिन्ता का भी अन्त नहीं था। उसकी एकमात्र कन्या थी सुकुमारिका। उसने तो योग्य हाथों में ही समर्पित किया था सुकुमारिका को। - - - - 'किन्तु गहन थी कर्मगति--नहीं तो इतनी सुन्दर, शोभना नारी के स्पर्श में क्या ज्वाला होती? क्या कर सकता था सागरदत्त ?
नहीं, कुछ नहीं कर सकता था सागरदत्त । कारण, समाज के विधानों का उल्लंघन कर, उल्लंघन कर शिष्टाचार का, अर्थदान से वशीभूत करके एक अन्य युवक को सम्प्रदान कर दिया था सुकुमारिका को, ताकि उसका जीवन पुष्पित हो उठे। . . . . किन्तु पुनरावृत्ति हुई उसी प्रथम वासर रात्रि की। वह भी श्रेष्ठिपुत्र सगर की भाँति 'ज्वाला-ज्वाला' चीत्कार करता हुआ जो वासरगृह से अदृश्य हुआ तो फिर कभी नहीं लौटा।
केकारव ध्वनित हो रहा था तमाल पत्रों के अन्तराल से; किन्तु क्या सुकुमारिका के जीवन में कोकोत्कण्ठा वर्षा-मयी के मन का आनन्द किसी दिन भी सत्य नहीं होगा?
____ दिन बीते, महीने बीते, वर्ष बीते। एक-एक दिन एक-एक वर्ष की प्रतीति लिये लौटा; किन्तु सुकुमारिका के जीवन की दुःसहता का अन्त नहीं हो पाया। कभी-कभी सोच उठती-तब क्या प्रयोजन है इस देह-भार को वहन करने का ? इसका अन्त कर डालना ही तो सुखकर है। इस बार सरोवर-जल में स्नान के लिए उतरकर वह पुनः नहीं लौटेगी।
सुकुमारिका का यह मनोभाव पिता सागरदत्त से भी छिपा न रह सका। बोले- 'बेटी ! असमय में जीवन का अन्त करना उचित नहीं। उससे किंचित् भी
तीर्थंकर : मार्च ७९/११
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