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पुराण-कथा
सुकुमारिका
क्रमशः निष्प्रभ होता गया अपराह्न का सूर्य। निकटतर होता गया सन्ध्या का अन्धकार। कैसी नीलाभ सी होती गई द्रुमलताएँ !! सहसा उसे लगा जैसे कोई उससे प्रश्न कर रहा है - 'तुम्हें क्या चाहिये तपस्विनी ?' । गणेश ललवानी
शुष्क, नीरस, आर्द्रताहीन मरुस्थली-सा था श्रेष्ठिकन्या सुकुमारिका का जीवन; अथवा निदाघ की प्रखर सूर्य-किरणों से तप्त मध्याह्न के प्रज्वलित दावानल-सा। कहीं भी जरा-सी शीतलता नहीं, स्निग्धता नहीं, छाया का लेशमात्र नहीं। जैसे एक भयंकर अभिशाप के नागपाश ने आवेष्टित कर रखा है, उसका समग्र जीव, उसका समग्र अस्तित्व ।
.. किन्तु, क्या है वह अभिशाप इसे सुकुमारिका नहीं जानती थी।
यौवन के आविर्भाव में विकसित हो उठी थी उसकी वह सुन्दर देहलता। स्रोतस्विनी-सी चंचल। सुस्मित अधरों पर जाग रही थी, उष्ण अनुराग-भरे युगल अधरों के दबाव से पीड़ित होने की तृष्णा। समुत्सुक हो उठी थी किन्हीं बलिष्ठ बाहु-बन्धनों में आबद्ध होने की अभीप्सा; किन्तु, क्या यह सम्भव है ? किसी दिन भी सम्भव है ?
प्रासाद-संलग्न उद्यान-वाटिका में पुन्नाग ( नागकेशर ) वृक्ष-तले पुष्पदलपुञ्जों के कोमल आसन पर आ बैठी थी सुकुमारिका । देख रही थी स्वच्छ सलिल सरोवर को, दूर-दूर तक विस्तृत नीलवर्ण निबिड़ कानन को। क्या उस नीलवर्ण कानन की स्निग्धता उसके हृदय को स्निग्ध कर सकेगी? क्या वह नवजलधर-सा कान्तिमय सरोवर-जल उसके अन्तर्दाह को शान्त कर सकेगा?
तभी धीरे-से पार्श्व में आ खड़ी हुई सखि सुचारिता। सान्त्वना की भाषा में वह कुछ कहना चाह रही थी; किन्तु शब्द फूट न सके। हठात् सुकुमारिका के युगल कपोलों को प्लावित कर डाला अविरल बहती अश्रुधारा ने। आवेग में वायुकम्पित केतकी-पत्र की भाँति काँप रही थी उसकी देह-यष्टि ।
'शान्त हो जाओ सुकुमारिके !'
· · · किन्तु-कैसे शान्त बने सुकुमारिका। नारी-जीवन की जो सार्थकता है वधू बनने में, जननी बनने में वह उसके जीवन में सत्य होने जाकर भी सत्य नहीं हो पायी।
स्मरण हो आया वैशाखी पूर्णिमा का वह दिन जिस दिन सुरुचिता ने ही उसे वधू-वेश में सुसज्जित किया था। स्मरण हो आया वर्णायित दुकूलों से, कुसुमों
तीर्थंकर : मार्च ७९/१०
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