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________________ वह दौड़ कर नियत स्थान पर पहुँचा, पहले माइक पर 'हलो-हलो' कहा, फिर शास्त्र का एक पन्ना चिट्ठी की तरह पढ़ कर मुस्कराते हुए उठ गया। बाद में पता चला। शास्त्रपाठ नहीं करना था, उन्हें तो माइक पर बोलकर देखना था सो देख लिया। स्वाध्याय यह भी है--मन्दिर के पास एक विशाल कक्ष के बीचों-बीच आसन पर वक्ता महोदय बैठे हैं, सामने की ओर ४-६ मोटे गद्दे बिछे हैं, जिन पर तकिये की तरह लढके हुए कुछ 'श्वेतश्री' पधारे हैं। उनके पीछे बड़ी-बड़ी दरियों पर साधारण लोग मैल की तरह चिपके हैं। स्वाध्याय 'चल' रहा है। 'चल' इसलिए कहा गया कि ऐसे मौकों पर मैंने स्वाध्याय को फिल्म की तरह 'चलते' देखा है। तो स्वाध्याय चल रहा है, पीछे दरी पर बैठे साधारण आदमी आगे गद्दों पर बैठे विशेष आदमियों की बैठक' पर भीतर-ही-भीतर कुढ़ रहे हैं। सभी दरी पर क्यों नहीं या सभी गद्दों पर क्यों नहीं-की कुढ़न। आसन पर स्वाध्याय और दरी पर कुढ़न एक गति से चलते हैं, उसी गति से गद्दे पर बैठे महानुभावों का अन्तरंग 'अहम्' भी चलता रहता है और देखने वाले समझते हैं कि स्वाध्याय 'चल' रहा है। 'बड़े लोगों के नखरे कम विचित्र नहीं होते। स्वाध्याय करते हुए फोन करना और फिर स्वाध्याय करने में जुट जाना, आम हो गया है। स्वाध्याय करते-करते ड्रायवर को कहीं जाने का आदेश देना-स्वाध्याय में सम्मिलित कर लिया गया है ? बह का प्रवचन टेप कर भोजन के वक्त सुनने की तरह समाज के महापुरुषों के टेप पलंग पर लेटे-लेटे सुनना कौन-सा स्वाध्याय हुआ? समय काटने का स्वस्थ ज़रिया मान सकता हूँ मैं इसे। दूसरों के स्वाध्याय के लिए अपना स्वाध्याय टेप कर भेजना भी स्वाध्याय नहीं, ढोंग है। बड़े घरों में किचिन, बाथरूम, ड्रॉइंग रूम की तरह स्वाध्याय-कक्ष बनाने की होड़ लग गयी है। धर्म और संस्कृति के उत्कृष्ट ग्रन्थ खरीद कर इस कक्ष में रखे जाते हैं, जिस तरह ड्रॉइंग रूम में आपकी शादी का 'अलबम'। बाहर से जो सज्जन आते हैं उन्हें स्वाध्याय-कक्ष और ग्रन्थ सिलसिलेवार दिखाये जाते हैं। दिखाते-दिखाते वर्षों बीत जाते हैं, पर उस कक्ष में घंटेभर बैठ कर कभी स्वाध्याय करने का वक्त ही नहीं निकाला जाता; फलतः कक्ष कक्ष न हो कर ग्रन्थों का 'कांजीहाउस' बन कर रह जाता है। यह वह कार्य है जिससे स्वाध्याय का ‘अनुभाव' भले सध जाता हो पर 'अनुभव' नहीं हो पाता। __ सेठ का व्यवसाय पूंजी को बढ़ाता है उसी तरह स्वाध्याय अध्यात्म को बढ़ाता है। बस, स्वाध्याय के अवसर-विशेष पर 'अध्येय क्या है' का विचार सुथरा और स्वस्थ हो। कुछ भी पढ़ कर या सोच कर स्वाध्याय की रस्म तो पूरी की जा मकती है; स्वाध्याय नहीं। अध्ययन, अध्यापन, चिन्तन मनन और भक्ति की विभिन्न क्रियाएँ एक ही वक्त चालू रखी जाती हैं और आत्मा के किसी 'विशिष्ट' को समझने-जानने पर ध्यान दिया जाता है, तब होता है स्वाध्याय । एक पुराण की ४ पंक्तियाँ प्रतिदिन पढ़ कर जीवन बिताते रहना स्वाध्याय नहीं है। चार पंक्तियों में जीवन की सार्थकता समझना-देखना रवाध्याय है। स्वाध्याय स्वगत है । ० तीर्थंकर : मार्च ७९/९ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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