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________________ हम कितने 'हम' हैं यह हम नहीं जानते, अतः जानने के लिए स्वाध्याय करते हैं। पर दुर्भाग्य से हमारी सम्बन्ध-शृंखला मोटे वृक्ष-पत्नी, प्रेमिका या संतान से; कीर्ति, सम्मान या स्वगुणगान से; संलग्न रही आती है, उद्योगों-उद्यमों से जुड़ी रहती है, सो रोज-रोज स्वाध्यायी होना चाहते हुए भी, स्वाध्यायी तो हो नहीं पाते, बस, अध्यवसायी बनते जाते हैं स्व-कार्यक्षेत्र के। और विचार क्षेत्र में दो क़दम चल ही नहीं पाते, जीवन-भर विचार करते हुए भी। एक ही समय में हमारा तन अध्यवसायी (उद्यमी) और मन स्वाध्यायी बना रहता है। जो स्वाध्याय कर रहे हैं नित्य-नित्य उन्हें प्रणाम । पर जो स्वाध्याय करने का 'नखरा' कर रहे हैं उन्हें..."उन्हें क्या कहा जाए ! मंदिर से लगे कक्ष में या सभाभवन में बैठकर आज जो स्वाध्याय का ढोंग रचा जा रहा है, वह घातक है। ढोंग से न स्वाध्याय सध सकता, न अध्यवसाय, न व्यवसाय और न वह ढोंग जो किया जा रहा है। ये व्यक्ति ढोंगी नहीं हो सकते जो स्वाध्याय को व्यक्तिगत से ऊपर आत्मगत क्रिया मानते हैं पर वे निरे नखरेबाज और ढोंगी हैं जो स्वाध्याय को सार्वजनिकता का रूप दे रहे हैं, जो स-समूह स्वाध्याय करने पर तुले हैं। ध्यान देना होगा-स्वाध्याय मंदिर के प्रांगण में, उपकक्ष में, सभाभवन में, घर में, किया जाए, समय और स्थान की सुविधा से ही किया जाए; परन्तु 'अपने-अपने लिए' किया जाए।' सब जन स्वाध्याय करते हैं इसलिए मैं भी करता चलूं' का अभिनय या होड़ हटानी होगी। __'हॉल' में चौदह आदमी हैं, एक आदमी प्रवचन कर रहा है, तेरह सुन-गुन रहे हैं। फिर भी उनका स्वाध्याय सही दिशा में नहीं हो पा रहा है, ध्यान माइक पर है। माइक जो प्रवचनकर्ता के प्रवचनों के साथ अपना प्रवचन भी सुना रहा होता है। मैं कहता हूँ-आपके प्रवचन अच्छे हैं, माइक खराब है, उसे बन्द कर दें, फिर प्रवचन करें, मात्र तेरह लोग तो हैं ही, क्या आवश्यकता है माइक की? प्रवचनकार मेरे कथन को 'मिथ्या' मानता है। उसे प्रवचन से अधिक उपयोगी माइक प्रतीत होता है। वह कहना चाहता है कि अमुक शास्त्र में लिखा है कि माइक के बगैर प्रवचन करने से 'मशीन-हिंसा' होती है पर उसे ऐसा कोई श्लोक 'गुड़गुड़ाने' नहीं मिलता। मैंने 'गुड़गुड़ाने' शब्द का उपयोग इसलिए किया कि अपनी चौधराहट बतलाने-बघारने के लिए विद्वान् लोग आजकल श्लोक का उपयोग हुक्के की तरह कर रहे हैं। गुड़गुड़ा रहे हैं । वह अनुत्तरित रहा आता है और गूंजते-गुर्राते माइक को पुचकार-पुचकार कर ‘भाषण' करता रहता है। यहां माइक पर बोलना-पढ़ना ही स्वाध्याय मान लिया गया। माइक बन्द, स्वाध्याय बन्द। स्वाध्याय के नखरे और-और हैं, हर नगर में हैं, हर समाज में हैं। एक सज्जन सभाभवन में जिद कर बैठे, कहने लगे-'आज शास्त्र-पाठ मैं करूंगा। दस वर्ष से सबका पाठ सुन रहा हूँ, आज सब मुझे सुनें।' उसे कुछ समय दिया गया। तीर्थंकर : मार्च ७९/८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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