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________________ स्वाध्याय एक पुराण की चार पंक्तियां प्रतिदिन पढ़कर जीवन बिताते रहना स्वाध्याय नहीं है, वरन् इन चार पंक्तियों में जीवन की सार्थकता समझनादेखना स्वाध्याय है। स्वाध्याय स्वगत है। । सुरेश 'सरल' जो मरते-मरते तक 'दिया जाता है, वह भाषण है और जो जीवन भर 'अदेय' रहे, यानी दिया न जा सके, वह स्वाध्याय कहलाता है। यह परिभाषा नहीं तर्क-वितर्क है, अध्याहार। स्वाध्याय वह 'पाठ' है, जिसे व्यक्ति किसी अंतरंग प्रेरणा से स्वतः के लिए करता है। यह वह क्षण है जब व्यक्ति कुछ पढ़ रहा होता है, घोख रहा होता है, विमर्श कर रहा होता है, चिन्तन कर रहा होता है, सुन रहा होता है, औरों को सुनाकर सुन रहा होता है, और फिर इन सभी क्रियाओं से प्राप्त 'प्राप्य' को आत्मसात कर निर्मल-निर्भय-निष्कलंक आचरण करने की भूमिका तैयार कर रहा होता है। स्वाध्याय मनोगत ऐसा आत्मिक अधिकरण है जिसके सहयोग से आदमी आदमियत के अनुरूप' धर्म समझने, जानने और धर्मप्रणीत आचरण करने को तैयार' होता है। यह अनुरूप 'अनरूप' भी बन जाता है कभी-कभी, जब समय 'स्वाध्याय' में और चित्त 'पराध्याय' में खप रहा होता है। 'स्व' के लिए प्रारम्भ किया गया परिच्छेद; सर्ग; पाठ जाने क्यों 'पर' की चर्चा से रंग जाता है। 'स्व' के नाम पर 'पर' का उद्बोधन, चिन्तन, वार्ता ही स्वाध्याय की अनुरूपता है, वकृत्य है, भद्दापन है । स्वाध्याय को जाने क्यों पराध्याय से पुता हुआ पाया है, हमने। हम जब-जब भीतर डुबकी लगाने की योजना बनाते हैं तो डुबकी से पहले हमारा ध्यान भीतर की गहराई की अपेक्षा किनारों पर जाता है। ये वे किनारे हैं जो सभी को बहा देते हैं पर खुद जहाँ के तहाँ अड़े रहते हैं। किनारों से बहकर मध्य और मध्य में डूबकर गहराई तक गोता लगाने वाले 'हम' किसी अदृश्य जंजीर से अवश्य बंधे रहना चाहते हैं जिसका दूसरा छोर किनारे के मोटे दरख्त से बँधा हुआ होता है। 'किनारे' हमारी तरह ही स्वार्थी होते हैं, जो स्वस्थ वृक्ष को किसी लहर के साथ बहते देख मुस्कराते खड़े रहते हैं, रोकते नहीं। बचाते नहीं। न रोकने-बचाने की कोशिश करते हैं। ये उन नेताओं की तरह हैं जो जुलूस को थाने तक ले जाकर पत्थर फिकवाते हैं पर 'लाठी-चार्ज के समय अन्तर्ध्यान हो जाते हैं, भीड़ पिटती रहती है। ___ डूबने-ध्यानसात् होने के लिए हमें जंजीर या मोटे पेड़ या किनारों को भुलाना होगा। तभी 'स्वाध्याय' कर सकेंगे, स्वाध्यायी हो सकेंगे। तीर्थकर : मार्च ७९/७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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