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________________ पड़ता है । वह तो केवल हमारे मन की बात है-नितान्त हमारी अपनी । हम भूल जाते हैं कि उदासी सुख का शत्रु है। हम हंसते हैं तो उस समय हमारा मन भी प्रफुल्लित हो उठता है। सुख गुलाब की सुगन्ध की तरह सहज और स्वाभाविक होता है, जिस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जो अपने सुख की कोई कीमत लगाते हैं और बदले में उससे कुछ पाने की आशा करते हैं, सुख उनको छलावा देकर उनके सामने से निकल जाता है। हम प्रायः अधिक से अधिक सुख पाने की इच्छा से सुखों को भौतिक उपलब्धियों में बदल देते हैं और अपने चारों ओर ऐश्वर्य और सुविधाओं का ढेर लगाते चलते हैं। पर मन है कि सन्तुष्ट नहीं होता। कभी किसी बात में उलझ जाता है तो कभी किसी चीज को पाने की होड़ में कष्ट उठाता है। ___ भौतिक उपलब्धियों का यह सुख सच्चा नहीं है। मन की सन्तुष्टि और शान्ति ही मनुष्य को सच्चा सुख प्रदान करती है। महलों में रहने वाले बादशाह की अपेक्षा एक झोपड़ी में रहने वाला निर्धन व्यक्ति अधिक सुखी होता है; क्योंकि उस सुखमें उसके परिश्रम के रत्न भरे होते हैं। वह केवल आज में जीता है और आज का मिला सुख उसके लिए बेशकीमती होता है। जब तक आत्मसुखाय' अपने कर्म में अपने आन्तरिक सौन्दर्य को हम भरना नहीं सीखेंगे, या अपने दायरे से बाहर निकल कर परसुख और हित की बात नहीं सोचेंगे, हम कहीं भी सुखी और सफल नहीं हो सकते । बाह्य सफलता सुख का आधार नहीं है। बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ जीतने वाला व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं से बिका हुआ आदमी होता है। यह सफलता मन को भ्रमित करने वाली होती है। सुखात्मक विचार, सुखात्मक कार्य ही हमारे जीवन में सुख का सवेरा लाते हैं। सहज-शान्त मन, प्रसन्नता से उद्भासित मुखमण्डल और प्रखर चिन्तन-मनन से दीपित नेत्र हमारे आन्तरिक विचारों को ही प्रकट करते हैं और उसका प्रभाव दूसरों पर और भी अधिक सुन्दर हो जाता है। सुना नहीं है-सुख में सब साथ देते हैं किन्तु दुःख में नहीं। फिर क्यों न हम अपने दुःखों को सूखों में बदलते चलें। मन की एक-एक गाँठ हम उसी तरह अलग करते चलें जिस तरह ईख की गाँठों को अलग कर हम उसके सुस्वादु रस का मधुर पान करते हैं। जिस तरह सूर्य सघन अन्धकार को चीरकर हमारी ज़िन्दगी को ऊर्जा पहुंचाता है उसी तरह हम भी क्यों न अपने मन में कल्याण की नयी रोशनी फैला दें। हम अपने आज को नष्ट कर कल में जीने की कोशिश न करें क्योंकि कल ज़िन्दगी में कभी नहीं आता। आज मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक अशान्त अधिक अरक्षित और अधिक कष्ट का अनुभव कर रहा है। क्योंकि वह एक दिखावे की ज़िन्दगी जी रहा है। अपनी ज़िन्दगी को भल कर दूसरे की ज़िन्दगी जी रहा है। अति आधुनिकता के फेर में वह भय, भ्रम, सन्देह और आशंकाओं से घिर गया है। जब तक इन्हें तिलाञ्जलि दे कर वह विश्वास, प्रेम और सद्भावना को अपने भीतर स्थान नहीं देगा, उसे सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा। मनुष्य अपने सुख की दिशा वर्तमान से ही प्रारम्भ करे-वर्तमान अर्थात् आज । और आज का यह एक दिन ही मनुष्य के लिए सुख के सवेरे ला सकता है। फिर क्यों न हम आज के दिन को स्वर्णिम बना लें? तीर्थकर : मार्च ७९/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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