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जिन्दगी | का | एक / दिन
O हम अपने आप को नष्ट कर कल में जीने की कोशिश न करें, क्योंकि कल
जिन्दगी में कभी नहीं आता। ० मन की एक-एक गाँठ हम उसी तरह अलग करते चलें, जिस तरह ईख की गाँठों को अलग कर हम उसके सुस्वादु रस का मधुर पान करते हैं।
D डा. कुन्तल गोयल एक मनोवैज्ञानिक ने आधुनिक जीवन का चित्र केवल तीन शब्दों में व्यक्त किया है--जल्दबाजी, परेशानी और श्मशान-यात्रा। औसत दर्जे का कारवारी तेजी से ग्रास-पर-ग्रास निगलता जाता है, राहगीरों और सवारियों के बीच से बचता हुआ भागता जाता है। शाम को घर की ओर दौड़ता है। एस्प्रिन की टिकिया खाता है और इसे ही अपना आज का दिन कहता है। हमारा दिमाग बराबर थका बना रहता है और यही थकान हमें अस्पतालों, पागलखानों और श्मशान की ओर ले जाती है। हम इस थकान को सुरा के साथ नहीं पी सकते, ताश के खेल में इसे नहीं निकाल सकते, नाटक में इसे हँसकर खत्म नहीं कर सकते और न ही नींद लाने वाली गोलियों से सोकर इसे बिता सकते हैं। इससे मुक्ति पाने का केवल एक ही तरीका हमारे सामने है-वह यह कि ज्ञानवान प्राणी होने के नाते अपने पर नियन्त्रण करना सीखें, अपनी सत्ता के नियमों को, जो प्रकृति के नियम हैं, समझें
और उनका पालन करें। शारीरिक और मानसिक पतन के प्रबल प्रवाह से, जो सद्गुणों को अपने साथ बहा ले जा सकता है, बचने का प्रयास करें। मानवता ही हमारे जीवन का सर्वोपरि धर्म होना चाहिये। इस धर्म के पालन से ही मनुष्य आधुनिक जीवन के अभिशाप से पृथक् रह सकता है।
हमारा आज का दिन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस एक दिन को सुचारु रूप से ही सहज और सम्भव बनाना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति को एक दिन के लिए अपना भार-वहन करने, अपना काम करने में चाहे वह कितना ही कठिन क्यों न हो, समर्थ होना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति को बस एक दिन ईश्वर का स्मरण करने, कष्ट में पड़े लोगों को याद करने, या असहायों के लिए सहायता का हाथ आगे बढ़ाने योग्य होना चाहिये। बस, इतना ही करना है। न तो हमें एक दिन से अधिक का जीवन मिलता है और न ही आगामी कल मिलता है। यदि हम आज के सभी कार्यों को पूरी सच्चाई के साथ करके हुए अपने प्रत्येक दिन को भरते जाएँ तो हमारे सामने शुभ परिणामों और वरदानों का ढेर लग जाएगा।
आज मनुष्य सुख पाने के लिए न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है। न जाने उसे कितने कष्ट उठाने पड़ रहे हैं ? पर सुख कहीं हाथ नहीं लगता। सुख पाने लिए कहीं जाना नहीं पड़ता और न ही उसे पाने के लिए कोई परिश्रम ही करना
तीर्थकर : मार्च ७९/५
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